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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
अनावलम्बन योग के सिद्ध हो जाने पर 'क्षपक श्रेणी' शुरु हो यौगिक अनुष्ठान जाती है । फलत: ऐसा साधक परम निर्वाण की प्राप्ति करता है । इसमें १.विष अनुष्ठान - इस अनुष्ठान को करते समय साधक साधक के संस्कार इतने दृढ़ हो जाते हैं कि योग प्रवृत्ति करते समय की इच्छा सांसारिक सुख भोगों की ओर होती है। यश, कीर्ति, इन्द्रिय शास्त्र का स्मरण करने की कोई अपेक्षा ही नहीं रहती । समाधि की सुख, धन आदि की प्राप्ति ही उसका परम लक्ष्य होता है । राग आदि अवस्था प्राप्त हो जाती है ।५९ इसकी तुलना पांतजल योग के 'समाधि' भावों की अधिकता के कारण यह अनुष्ठान विष अनुष्ठान है। अंग से की जा सकती है।६०
२. गरानुष्ठान - जिस अनुष्ठान के साथ दैविक भोगों की वह पाँच प्रकार का योग निश्चय दृष्टि से उसी को सधता है अभिलाषा जडी भी रहती है उसे मनीषीजन गर कहते हैं। भोग वासना जो चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम से अंशत: या सम्पूर्णतया चारित्र सम्पन्न के कारण कालान्तर एवं भवान्तर में वह आत्मा के दु:ख और अधोपतन होता है । जब योग योगी के सम्पर्क में आने वाले अन्य लोगों को का कारण बनता है। भी उत्प्रेरित एवं प्रभावित करे तब इसे सिद्धि योग कहा जाता है।
३. अनानुष्ठान - जो धार्मिक क्रियायें विवेकहीन होकर
लोक-परम्परा का पालन करते हये भेड़चाल की तरह की जाती हैं उन्हें तात्त्विक दृष्टि से योग के भेद..
अनानुष्ठान कहा जाता है। पाँच प्रकार के शुभ योग कहे गये हैं .
४. तद्धेतु अनुष्ठान - मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा से जो शुभ १. प्रणधि - अपने आचार-विचार में स्थिर रहते हये, सभी क्रियायें, धार्मिक व्रत या अनुष्ठान किये जाते हैं उन्हें तद्धत् अनुष्ठान जीवों पर भाव रखते हुये निश्चल मन से कर्तव्य का संकल्प करना प्रणधि कहा जाता है । यद्यपि राग का अंश यहाँ भी विद्यमान रहता हैं, परन्तु है। इसमें परोपकार करने की इच्छा और हीन गणी पर भी दया भाव प्रशस्त राग होने से वह मोक्ष का कारण है । इसलिये सदानष्ठान कहा रहता है।
जाता है। २. प्रवृत्ति - इसमें साधक निर्दिष्ट योग साधनाओं में मन को
५. अमृतानुष्ठान - जिस अनुष्ठान के साथ-साथ साधक के प्रवृत्ति करता है अर्थात् धार्मिक व्रत अनुष्ठानों को सम्यक्तया पालन मन में मोक्षोन्मुख आत्मभाव तथा वैराग्य की आत्मानुभूति जुड़ी रहती करता है।
है और साधक के मन में अर्हत् पर आस्था बनी रहती है उसे ३. विध्वजय - योग साधना के यम नियमों का पालन करते अमृतानुष्ठान कहा गया है -- आदर, प्रीति, अविध्न, सम्पदागम, हुये अनेक प्रकार की मोहजन्य बाह्य या आंतरिक कठिनाइयां आती हैं। जिज्ञासा, तज्ज्ञसेवा, तज्ज्ञअनुग्रह, ये सदमुष्ठान के लक्षण कहे गये उन पर विजय पाये बिना साधना पूर्ण नहीं हो सकती। अत: अन्तरायों हैं।६७ की निवृत्ति करने वाला शुद्ध आत्म परिणाम विघ्नजय है।
६. असंगानुष्ठान- इसमें समता भाव का उदय होता है। ४. सिद्धि - समता भावादि की उत्पत्ति से साधक की इच्छाओं-आकांक्षाओं का नाश होता है सदाचार का पालन करते हये कषायजन्य सारी चंचलता नष्ट हो जाती है। वह अधिक गण वाले के साधक मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर होता है । ६८ इसके चार भेद कहे गये प्रति बहुमान और हीन गुणवालों के प्रति दया और उपकार की भावना हैं : रखने लगता है।
(क) प्रीति - कषाय से युक्त व्यापारों को प्रीति अनुष्ठान ५. विनियोग - सिद्धि के उपरान्त साधक का उत्तरोतर कहा गया है। आत्मविकास होता जाता है उसकी धार्मिक वृत्तियों में दृढ़ता, क्षमता, (ख) भक्ति - आचार आदि क्रियाओं से युक्त होना भक्ति है । ओज और तेज आ जाता है। उसकी साधना ऊर्जस्वी हो जाता है। (ग) विचार - शास्त्रानुकूल आचार-विचार का चिन्तन एवं साधक की धार्मिक वृत्तियों का उत्तरोत्तर विकास होने लगता है। उपदेश वचनानुष्ठान कहे जाते हैं। परोपकार कल्याण आदि वृत्तियों का विकास हो जाती है ।६४
(घ) असंगानुष्ठान - वचनानुष्ठान में स्वाभाविक प्रवृत्ति को वह सब योग की क्रमिक विकासोन्मुख स्थितियां हैं। असंगानुष्ठान कहा गया है ।६९ इसे अनालम्बन योग भी कहते हैं।
चारित्रिक विकास तथा योग साधना हेत साधकों के लिए कछ इन अनुष्ठानों के योग से योगी स्वभावत: बाह्य वस्तुओं के आश्यक नियम, उपनियम तथा क्रियाओं को करने का विधान है क्योंकि प्रति ममता रहित होकर निर्ममत्व की ओर मुड़ता है, केवल ज्ञान को उनके बिना योग सिद्धि संभव नहीं है। हरिभद्र ने उत्साह, निश्चय, धैर्य, प्राप्त कर अंत में सिद्ध दशा को उपलब्ध कर लेता है। आचार्य कहते सन्तोष, तत्त्वदर्शन तथा जनपद त्याग (परिचित क्षेत्र से दूर रहना) हैं अपनी प्रकृति का अवलोकन करते हुये, लोक परम्परा को जानते हये, लौकिक जनों द्वारा स्वीकृत जीवनक्रम का परिवर्जन -- ये योग साधने शुद्ध योग के आधार पर प्रवृत्ति का औचित्य समझ कर, बाह्य निमित्त के हेतु कहे है ।६५
शकुन, स्वर, नाड़ी, अंग-स्फुरण आदि का अंकन करते हुये योग में
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