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________________ आचार्य हरिभद्र और उनका योग ८३ प्रवृत्त होना चाहिये । योगीजन असंगानुष्ठान को विभिन्न संज्ञाओं से योग का महत्त्व - भारतीय संस्कृति में समस्त विचारकों, पुकारते हैं । सांख्य दर्शन में प्रशान्त वाहिता, बौद्धदर्शन में विसंभाग तत्त्व चिन्तकों एवं मननशील ऋषियों ने योग के महत्त्व को स्वीकार परिक्षय तथा शैवधर्म में शिववर्त्म कहा गया है । कोई इसे ध्रुव मार्ग किया है। योग को लौकिक, पारलौकिक, शारीरिक तथा आत्मोन्नति भी कहते हैं । वस्तुत: सिद्धावस्था अथवा निर्वाण अनेक नामों से का प्रबल हेतु कहा गया है। मन और इन्द्रियों की चंचलता मिटाने तथा अभिहित होकर भी एक ही स्थिति का बोधक है ।२ मुक्त आत्माओं को उनको वश में करने के लिये योग की उपयोगिता स्वीकार की गई है। विभिन्न परम्पराओं में सदाशिव, परब्रह्म, सिद्धात्मा, तथता आदि नामों योग से वृत्त की एकाग्रता सधती है तथा ध्येय में सफलता प्राप्त होती से पुकारा जाता है । योग साधना से साधक को स्थिरता, प्रतिभा, अन्तः स्फुरणा, योगजन्य लब्धियां - धीरज, श्रद्धा, मैत्री, अन्तर्ज्ञान, लोकप्रियता, मृत्युज्ञान, सन्तोष, योगी योग की साधना का उपक्रम करते हुये, जहाँ चिरकाल क्षमाशीलता, सहनशीलता, सदाचार, सुख-शान्ति, गौरव यथा समय से संचित कर्मों का क्षय करता है वहाँ योगी में अनेक विशिष्ट शक्तियां अनुकूल बाह्य परिस्थितियां पैदा हो जाना, जैसे अनेक सुख प्राप्त होते जागृत हो जाती है जिन्हें जैन परम्परा में लब्धि कहा जाता है इनमें रत्न, हैं। योगाभ्यास द्वारा आत्मा के क्लेशात्मक परिणामों का उपशम एवं अणिमा, आमर्षीषधि आदि के नाम आचार्य हरिभद्र ने बताये हैं। क्षय होता हैं।८२ आचार्य हरिभद्र कहते है कि जब चित्त योग रूपी कवच आमपौषधि • इस लब्धि के प्रभाव के साधक के शरीर के से ढका रहता है तो काम के तीक्ष्ण अस्त्र जो तप को भी छिन्न-भिन्न कर स्पर्श मात्र से रोगी स्वस्थ हो जाता है। देते है कुण्ठित हो जाते हैं। योग रूपी कवच से टकराकर वह शक्तिइन लब्धियों को बौद्ध परम्परा में अभिज्ञाएं, पातंजल योग शून्य हो जाते हैं ।५ योग मोक्ष का हेतु है वह शुद्ध ज्ञान और अनुभव दर्शन में विभूति५ और वैदिक पुराणों में सिद्धि कहा गया है ।आचार्य पर आधृत है । आत्मकल्याणेच्छु प्रज्ञाशील पुरुषों को इसका अनुसन्धान हरिभद्र के अनुसार जीवन का उत्तरोत्तर विकास करते अहिंसा आदि यम करना चाहिये ।८६ अज्ञानता, अविद्या द्वारा अशुद्ध आत्मा योग रूपी इतनी उत्कृष्ट कोटि में पहुँच जाते हैं कि साधक को अपने आप एक अग्नि पाकर शुद्ध निर्मल हो जाती है । आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि योग दिव्य शक्ति का उद्रेक हो जाता है। उसके सन्निधि मात्र से उपस्थित उत्तम कल्पवृक्ष है, उत्तर चिन्तामणिरत्न है, वह साधक की समस्त प्राणियों पर इतना प्रभाव पड़ता है कि वे स्वयं बदल जाते हैं। उनकी इच्छाओं को पूर्ण करता है। योग ही जीवन की चरम सफलता का दुष्पवृत्ति छूट जाती है । पतंजलि भी कहते हैं कि अहिंसा यम के सिद्ध हेतु है।८ योग न केवल सांसारिक सुखों से अपितु जन्ममरण के दुःखों हो जाने पर योगी के आस-पास के वातावरण में अहिंसा इतनी व्याप्त से भी छुटकारा दिला कर निर्वाण की प्राप्ति कराता है ।९० लोक तथा हो जाती है कि परस्पर वैर रखने वाले प्राणी भी आपस में वैर छोड़ देते शास्त्र से जिसका अविरोध हो जो अनुभव संगत तथा शास्त्रानुगत हो वही योग अनुसरणीय है। मात्र जो जड़ श्रद्धा पर आधृत है विद्वज्जन उसे हेमचन्द्र के योगशास्त्र में कहा गया है कि अस्तेय यम के सध उपादेय नहीं मानते। जाने पर पृथ्वी में गुप्त स्थान में गड़े हये रत्न प्रत्यक्ष दीखने लगते हैं।७६ जैन योग का केन्द्रबिन्दु आत्मस्वरूप उपलब्धि है। जहाँ अन्य हरिभद्रीय आवश्यकवृत्ति से ज्ञात होता है कि एक बार बारहवर्ष का दर्शनों में जीव का ब्रह्म में लीन हो जाना योग ध्येय निश्चित किया है। अकाल पड़ा था, अन्न की बहुत कमी हो गयी थी , भिक्षुओं को आहार वहाँ जैन दर्शन आत्मा की पूर्ण स्वतंत्रता और पूर्ण विशुद्धि के योग का नहीं मिलता था, आचार्य बल विशेष लब्धि के बल से आहर लाकर संघ ध्येय निश्चित करता है । जैन दृष्टि के अनुसार योग का अभिप्राय सिर्फ की रक्षा करते थे। किन्तु जिस साधक का अंतिम उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति चेतना का जागरण ही नहीं है वरन् चेतना का ऊर्ध्वारोहण है। योग का होता है वह भौतिक और चामत्कारिक लब्धियों के व्यामोह में नहीं वास्तविक फल मुक्तावस्था स्वरूप आनन्द है जो ऐकान्तिक, अनुत्तर फंसता । जो साधक लब्धियां पाने की अभीप्सा रखते हैं वे आत्मसिद्धि और सर्वोत्तम है। योग विद्या आध्यात्मिक विज्ञान है। अधिकारी जहाँ के मार्ग से च्यत होकर संसार-भ्रमण करते हैं । अत: इनकी प्राप्ति इसके महत्त्वपूर्ण प्रयोग द्वारा असीम लाभ उठा सकते हैं वहाँ अनाधिकारी के लिये न तो साधना करनी चाहिये और न इनका प्रयोग ही करना हानि उठा लेते हैं ।१२ चाहिए । जिस अनुष्ठान के पीछे लब्धि चामत्कारिक शक्ति प्राप्त करने जैन योग और आत्म विकास - अध्यात्म की साधना का का भाव रहता है उसे विष कहा गया है । वह महान कार्य को अल्प आधार आत्मा को कर्म से मुक्त करना है । कर्म शास्त्रीय परिभाषा में प्रयोजनवश तुच्छ बना देता है ।७९ प्रवृत्ति या योग से कर्मों का आकर्षण या आस्रव होता है। हमारा चैतन्य इसलिये जैन परम्परा में योगियों को यह प्रेरणा दी गई है कि कर्म पुद्गलों से आवृत हो जाता है । तपोयोग के द्वारा उसे कर्मावरण से वे तप का अनुष्ठान किसी लाभ, यश, कीर्ति अथवा परलोक में इन्द्रादि अनावृत किया जा सकता है । जिस प्रकार बीज के सर्व जल जाने से देवों जैसे सुख तथा अन्य ऋद्धियां प्राप्त करने की इच्छा से न करें। उसमें अंकुरण की क्षमता नहीं होती उसी प्रकार कर्म रूपी बीज के जल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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