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आचार्य हरिभद्र और उनका योग
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८. परा दृष्टि - यह दृष्टि समाधिनिष्ठ, आसक्तिं दोषों से ४. समता योग - विवेच्य ज्ञान की उत्पत्ति से आत्मा में रहित और जागरूक चित्त वाली होती है । इसमें चित्त में प्रवृत्ति करने विचार-वैषम्य का लय और सम भाव का परिणमन होने लगता है । की कोई वासना नहीं रहती है। इसमें परमतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता वस्तु स्वरूप का यथार्थ बोध होने पर समता का भाव आ जाता है, सूक्ष्म है और साधक आत्मभाव से रमण करता है । इस दृष्टि में साधना कर्मों का क्षय होने लगता है । समता योगी चामत्कारिक शक्तियों का अतिचारों (दोषों) से निदोष होती है । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, प्रयोग नहीं करता। उसकी आशाओं-आकाक्षाओं के तन्तु टूटने लगते मोहनीय तथा अन्तरायकर्म क्षीण हो जाते हैं । आत्मा सर्वज्ञ परमात्मा हैं।५४ बन जाती है। इसमें अष्टांग योग का आँठवाँ अंग समाधि सध जाता ५. वृतिसंक्षययोग - आत्मा में मन और शरीर के संसर्ग है । ४६ इस प्रकार अध्यात्मिक योग साधना के द्वारा साधक शनै:-शनैः से उत्पन्न होने वाली विकल्प रूप तथा चेष्टारूप वृत्तियों का जो निरोध आत्मोत्क्रांति करता हआ मोक्ष एवं निर्वाण पद को प्राप्त कर लेता है। किया जाता है और उन्हें पुन: उत्पन्न नहीं होने दिया जाता उसे वृतिसंक्षय पातंजल योगवर्णित समस्त अष्टांग योग इन आठ योग दृष्टियों में योग कहा जाता है । वृतिसंक्षय से सर्वज्ञता, शैलेशी अवस्था, मानसिक, समाहित हो जाता है। इन दृष्टियों में सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र कायिक, वाचिक प्रवृत्तियों का सर्वथा निरोध, मेरुवत् अप्रकम्प अडोल का सार निहित है।
स्थिति तथा निर्बाध आनन्द प्राप्त होकर अन्तत: मोक्ष की प्राप्ति होर्ती धर्मशास्त्रों में बताई गई विधि के अनुसार गरुजनों की सेवा है। ५५ अध्यात्म, भावना, ध्यान समता, वृत्तिसंक्षय इन पाँच में अष्टांग करना, उनसे तत्त्वज्ञान सुनने की उत्कंठा, क्षमतानुसार विधि-निषेधों का योग के आठ अंगों का समावेश हो जाता है । अध्यात्म और भावना में पालन करना व्यवहार योग हैं। जैन परम्परा में आध्यात्मिक विकास यम, नियम, आसन, प्रत्याहार का तथा धारणा और ध्यान समता एवं की सूचक १४ भूमिकायें गुणस्थान के नाम से जानी जाती हैं । आचार्य वृत्तिसंक्षय में समाधि का समावेश हो जाता है । आचार्य हरिभद्र ने हरिभद्र ने इन आध्यात्मिक विकास की १४ भूमिकाओं को निम्न पाँच धर्मशास्त्रों में बताई हुई विधि के अनुसार गुरुजनों की सेवा करना, उनसे योग भूमिकाओं में समाहिजे किया है :
तत्त्व ज्ञान सुनने की इच्छा रखना, क्षमतानुसार शास्त्रोक्त विधि निषेधों का
पालन करना व्यवहार योग कहा है ।५६ व्यवहार योग अनुसरण करतेयोग की पाँच भूमिकायें --
करते सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र में जो विशेष शद्धि आ १. अध्यात्मयोग - जैन परम्परा में मोक्षाभिलाषी आत्मा को
आ जाती है उसे निश्चय योग कहा है ।५७
जाता अध्यात्म-योग से युक्त होने की प्रेरणा दी गई है, क्योंकि चारित्र की शुद्धि के लिये अध्यात्म योग का अनुष्ठान मुमुक्षु आत्मा के लिये विशेष महत्त्व साधना रखता है । इसमें साधक अपने सामर्थ्य के अनुसार अणुव्रतों और
आचार्य हरिभद्र ने साधना की दृष्टि से योग के ५ भेद महाव्रतों को स्वीकार करके प्रमोद, मैत्री, करुणा, माध्यस्थ आदि चार
किये हैं५८ : भावनाओं का चिन्तन-मनन करता है ।।८
१. स्थान - स्थान का अभिप्राय आसन से है जिस सुखासन २. भावना योग - प्राप्त हुये अध्यात्म तत्त्व को निष्ठापूर्वक ..
पर योगी अधिक देर तक चित्त और शरीर को स्थिर रखता हुआ ध्यानस्थ निरन्तर स्मरण करना भावना योग है । इसमें अशुभ कर्मों की निवृत्ति १६
रह सके वही आसन या स्थान उत्तम है। होती है, सद्भावना तथा समताभाव की वृद्धि होती है, चित्त समाधियुक्त
२. ऊर्ण - प्रत्येक क्रिया समन्वाय के साथ जो सूत्र का हो जाता है।
उच्चारण किया जाता है उसे ऊर्ण योग कहा जाता है। इनमें स्वर, मात्रा, - आगमों में भी भावनायोग के महत्त्व को बताते हुये कहा गया
अक्षर आदि का ध्यान रखकर उपयोगपूर्वक शुद्ध उच्चारण किया जाता है कि साधक भावनायोग से जन्ममरण के दुःखों से छुटकारा पाकर
३. अर्थ - सूत्रों के अर्थ को समझना ही अर्थ योग है। शान्ति का अनुभव करता है ।५० ३. ध्यान योग - चित्त को बाह्य विषयों से हटाकर किसी
४. आलम्बन - ध्यान में रूपात्मक बाह्य विषयों का आश्रय
लेना आलम्बन कहा जाता है। एक सूक्ष्म पदार्थ में एकाग्र करना ध्यान योग है ।५१ शुभ प्रतीकों का
५. अनावलम्बन - ध्यान में बाह्य विषयों का आश्रय न आलम्बन लेकर चित्त का स्थिरीकरण ध्यान कहा जाता है । वह दीपक
लेकर शन्य में ही ध्यान को केन्द्रित करना अनावलम्बन योग है। की स्थिर लौ के समान ज्योतिर्मय एवं निश्चल होता है, सूक्ष्म तथा
महावीर स्वलबंन और निरलम्बन दोनों प्रकार की ध्यान साधना करते थे, अन्त:प्रविष्ट चिन्तन से समायुक्त होता है ।५२ प्रश्नव्याकरण में निश्चल
वे प्रहर तक अनिमेष दृष्टि ध्यान से करते थे, मन को एकाग्र करने के दीपशिखा के समान अन्य विषयों के संचार से रहित एक ही विषय पर
लिये दीवार का अवलम्बन लेते थे। ध्यान के विकास-काल में उनकी धारावाही प्रशस्त सूक्ष्म बोध को ध्यान कहा गया है ।५३
- त्राटक साधना बहुत देर तक चलती थी।
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