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________________ ८० जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ निवेंद, प्रशम, अनुभाव आदि गुण उसे स्वत: ही प्राप्त हो जाते हैं।२७ कर लेता है।५ इस दृष्टि में अष्टांग योग का तीसरा अंग आसन सधता अब वह सब पापों का पूर्णरूप से त्याग करता है। है।३६ आगमों से ज्ञात होता है कि महावीर आसन योग के बिना काय इन चारों अधिकारियों को उनके सामर्थ्य के अनुसार उपदेश योग में स्थिरता नहीं मानते थे । वह चंचलता से रहित होकर अनेक देना चाहिये । अपुनबंधक को लोक-धर्म का अर्थात् सदाचरण आदि का, प्रकार के आसन में स्थिर होकर ध्यान करते थे । सम्यग्दृष्टि को अणुव्रत आदि के पालन का, देशविरति को संयम और ४. दीप्रा दृष्टि - इसमें अतहदय में प्रशान्त रस का सहज महाव्रतों के पालन का और सर्वविरति को परमार्थ लक्षी आध्यात्मिक प्रवाह बढ़ता रहता है । तत्त्व-श्रवण सधता है, आत्मोन्मुखता का भाव उपदेश देना चाहिये ।२८ उदित होता है । वह द्रव्य प्राणायाम रेचक, पूरक, कुम्भक तक ही आचार्य हरिभद्र ने योग का एक भेद शास्त्रयोग और निशस्त्रयोग सीमित नहीं रहता किन्तु भाव प्राणायाम की भी साधना करता है। इसमें भी किया है। शास्त्रयोग उस योगी की साधना है, जिसके मोक्ष तक बाह्य-भावों (विभावदशा) का रेचन किया जाता है । अन्तरात्म-भावों का पहंचने में अनेक जन्म रहते हों। निशस्त्रयोग उस साधक को सधता है, पूरक किया जाता है और चिन्तन, मनन उस आत्मभाव को स्थिर जिसे केवल उसी जन्म में मोक्ष प्राप्त करना होता है ।२९ (कुम्भक) किया जाता है। आत्म विकास में इस भाव प्राणायाम का बड़ा महत्त्व है। इस दृष्टि में साधक आत्म विकास की इस भूमिका पर पहुँच योगदृष्टियाँ जाता है कि वह धर्म को प्राणों से भी अधिक महत्त्व देने लगता है, योग साधना के क्षेत्र में आध्यात्मिक विकास की अवस्थाओं प्राण-संकट आ जाने पर भी धर्म को नहीं छोड़ता इसमें प्राणायाम' को आचार्य हरिभद्र ने आठ दृष्टियों के रूप में भी प्रस्तुत किया है। सिद्ध होता है ।३८ आचार्य ने श्रद्धा का बोध कराने वाली तथा असत् प्रवृत्तियों को क्षीण उपर्युक्त चार दृष्टियों में मिथ्यात्व' की आंशिक सत्ता बनी रहती करके सत् प्रवृत्तियों की स्थापना करने वाली साधना को ही दृष्टि कहा है। इन दृष्टियों में धार्मिक व्रत-नियमों का पालन तो होता है, किन्तु है। सामान्य दृष्टि से ऊपर उठकर साधक इन योग दृष्टियों तक पहुँचता आन्तरिक विशुद्धि अल्प होती है । यदि तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति हो भी जाये, तो भी वह स्पष्ट नहीं होती है। १. मित्रादृष्टि - आत्माभ्युदय की पहली अवस्था है, इसमें ५. स्थिरादृष्टि - इसमें साधक को सूक्ष्म-बोध प्राप्त होता साधक के हृदय में प्राणी मात्र के लिये मैत्री भाव बढ़ने लगता है । इसमें है। उसके लिये समस्त पदार्थ मात्र ज्ञेय होते हैं। संसार की क्षणभंगुरता सम्यग्दर्शन होने पर भी श्रद्धोन्मुख आत्मबोध की मन्दता होती है, एवं अस्थिरता का ज्ञान हो जाने के कारण वह उनमें आसक्त नहीं होता। अहिंसादि यमों को पालन करने की इच्छा और धार्मिक अनुष्ठानों के प्रति इन्द्रियाँ संयमित हो जाती हैं । धर्म-क्रियाओं में आने वाली बाधाओं का अखेदता होती है वह धार्मिक क्रियाओं को प्रथा के रूप में करता तो परिहार हो जाता है और साधक परमात्म स्वरूप को पहचानने लगता है, परन्तु उसकी दृष्टि पूर्णतया सम्यक् नहीं हो पाती है, परन्तु है। इस दृष्टि में स्थित साधक के मिथ्यात्व-ग्रन्थि का भेदन हो जाता है अन्तर्जागरण और गुणात्मक प्रगति की यात्रा शुरु हो जाती है ।३१ साधक और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है। वह आत्मा को ही अजर-अमर सर्वज्ञ को अन्त:करण से नमस्कार करता है । आचार्य एवं तपस्वी की और उपादेय मानता है ।३९ इस दृष्टि में योग का पाँचवा अंग प्रत्याहार यथाचित सेवा करता है, औषधिदान, शास्त्रदान, जिन-पूजा, जिनवाणी सघता है।" के श्रवण, पठन, स्वाध्याय आदि में प्रवृत्त रहता है । इसकी तुलना ६. कान्तादृष्टि - इसमें साधक को अविच्छिन्न सम्यग्ज्ञान 'अष्टांगयोग' के प्रथम अंग 'यम' से की गई है । ३२ रहता है, सांसारिक कार्य करते हुये भी उसका मन आत्मा में ही लगा २. तारा दृष्टि - इसमें मित्रादृष्टि की अपेक्षा बोध कुछ अधिक रहता है, वह संसारिक भोगोपभोगों को अनासक्त भाव से भोगता है स्पष्ट होता है । साधक योगनिष्ठ साधकों की सेवा करता है, इस सेवा उसके राग-द्वेष अत्यल्प होते हैं, चित्तवृत्तियाँ बहुत कुछ उपशांत हो से उसे योगियों का अनुग्रह प्राप्त होता है। योग साधना और श्रद्धा का जाती है, इसमें योगी को अष्टांग योग का छठा अंग 'धारणा' सधता विकास होता है, आत्महित बुद्धि का उदय होता है । चैत्तसिक उद्वेग मिट है। धारणानिष्ठ हो जाने पर वह आत्मतत्त्व के अतिरिक्त अन्य विषयों में जाते हैं -शिष्ट जनों से मान्यता प्राप्त होती है।३३ इससे अष्टांग योग का रस नहीं लेता ।४२ दूसरा अंग 'नियम' सधता है अर्थात् शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ७. प्रभादृष्टि. इसमें संस्थित योगी ध्यान प्रिय होता है । परमात्मचिन्तन जीवन में फलित होते हैं। इसमें सूर्य के प्रकाश की तरह अत्यन्त सुस्पष्ट तत्त्वानुभूति या आत्मानुभूति ३. बला दृष्टि - इस दृष्टि में योगी सुखासन से युक्त होकर होती है । इसमें राग-द्वेष, मोह बाधा नहीं देते । सहज रूप से ही सुदृढ़ आत्म दर्शन को प्राप्त करता है । उसे तत्त्व ज्ञान के प्रति रुचि सत्प्रवृत्ति की ओर उसका झुकाव हो जाता है। प्रशान्त भाव की प्रधानता उत्पन्न होती है तथा योग साधना में किसी प्रकार का उद्वेग नहीं होता। हो जाती है। काम के साधनों को जीत लेता है। इसमें योग का सातवाँ इसमें तृष्णा का अभाव हो जाने से साधक उल्लासमय स्थिति को प्राप्त अंग ध्यान सधता है । ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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