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________________ १७२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ चाया ४. शूद्रवर्ण हुए लिखा है कि जिस विराट् पुरुष ने नदी, तालाब, वृक्ष, लताएँ, चौथा कारण शिल्प है। गृह उद्योग में इसका महत्त्व सर्वोपरि पशु, देव और दानव बनाए उसका ब्राह्मण मुख है, क्षत्रिय बाहु है, है। प्राचीन काल में यह काम करने वाले मनुष्यों को ही शूद्र वर्ण का वैश्य जंघाएँ हैं और शूद्र दोनों पैर हैं। कहा गया था इसमें सन्देह नहीं। अथर्ववेद में भी यह उल्लेख आता है किन्तु वहाँ वैश्यों को किन्तु धीरे धीरे यह स्थिति बदलती गई और आजीविका जंघाओं की उपमा न देकर उदर की उपमा दी गई है। के आधार से अनेक जातियाँ बनने लगीं। समाज में ऐसे मनुष्यों का वेदों के बाद ब्राह्मण और उपनिषद् काल आता है किन्तु एक स्वतन्त्र वर्ग बना जो नाच-गान से अपनी आजीविका करने वहां इनके कार्यों का अलग से विचार नहीं किया गया है। लगा। इसके बाद इस स्थिति में और भी अनेक परिवर्तन हुए और इसके बाद मनुस्मृति का काल आता है। मनुस्मृति ब्राह्मण अन्त में उन मनुष्यों का एक वर्ग सामने आया जिनका पेशा सेवावृत्ति धर्म का प्रमुख ग्रन्थ है। इसकी रचना मुख्यतया चार वर्णों के धर्म . करना रह गया। समाज में ये स्थित्यन्तर कैसे हुए इसके कारण अनेक कर्तव्यों का कथन करने के लिए की गई थी। हैं। किन्तु यहां हम उन कारणों का विचार नहीं करेंगे क्योंकि यह एक यहाँ पर हम प्रसंग से धर्म के सम्बन्ध में दो शब्द कह देना स्वतन्त्र निबन्ध का विषय है। तत्काल हमें यह देखना है कि शूद्रों की चाहते हैं। 'धर्म' शब्द मुख्यतया दो अर्थों में व्यवहत होता है- एक इस स्थिति के उत्पन्न करने में मुख्य कारण कौन है। व्यक्ति के जीवन संशोधन के अर्थ में जिसे हम आत्म धर्म कहते हैं यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि हमारे देश की और दूसरा समाज कर्तव्य के अर्थ में। मनुस्मृतिकार ने इन दोनों अर्थों श्रमण और वैदिक ये दो संस्कृतियां मुख्य हैं, इसालए शूद्रों की में धर्म शब्द का उल्लेख किया है। वे समाज कर्तव्य को वर्णधर्म वर्तमान स्थिति के कारणों की छानबीन करने के लिए इनके साहित्य कहते हैं और दूसरे को सामान्य धर्म कहते हैं। धर्म, अर्थ, काम और का आलोडन करना आवश्यक हो जाता है। उसमें भी सर्वप्रथम मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में धर्म पुरुषार्थ से वर्णधर्म ही लिया गया है। प्राचीन जैन और बौद्ध साहित्य को लीजिए। बौद्धों के धम्मपद और उनके मत से सामान्य धर्म अर्थात् आत्मधर्म के अधिकारी सभी जैनों के उत्तराध्ययन में समान रूप से यह गाथा आती है. मनुष्टा हैं किन्तु समाज-कर्तव्य सब के जूदे हैं। गीता में 'स्वधमें कम्मुणा बह्माणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ। निधनं श्रेयः' से इसी समाजधर्म का ग्रहण होता है। वइसो कम्मुणा होइ सुद्दो हवइ कम्मुणा।। मनुस्मृतिकार ९वें अध्याय में शूद्र वर्ण के कार्यों का निर्देश इसमें चारों वर्गों की स्थापना का मुख्य आधार कर्म माना करते हुए कहते हैंगया है। विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम् यद्यपि इससे इस बात पर प्रकाश नहीं पड़ता कि किस वर्ण शुश्रूषैव तु शूद्रस्य धर्मो नैश्रेयसः परः।। का कर्म क्या है? फिर भी श्रमण संस्कृति के अनुसार इन चार वर्षों वेदपाठी, गृहस्थ और यशस्वी विप्रों की सेवा करना यही की स्थापना का मुख्य आधार सामाजिक उच्चता और नीचता तथा शूद्रों का परम धर्म है जो निश्रेयस का हेतु है। जातिवाद नहीं है इतना इससे स्पष्ट हो जाता है। इसके आगे वे पुन: कहते हैंइन वर्गों का पृथक् पृथक् कर्म क्या है इसकी विशद शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुर्मुदुवागनहंकृतः। व्याख्या आचार्य जटासिंहनन्दी ने वरांगचरित में की है। इसका ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते।। उल्लेख हम पहले ही कर आए हैं। पवित्र रहने वाला, अच्छी टहल करने वाला, धीमे से जैन परम्परा में इसके बाद आदिपुराण का काल आता है। बोलने वाला, अहंकार से रहित और ब्राह्मण आदि तीन वर्षों के आदिपुराण में चार वर्गों के वे ही कार्य लिखे हैं जिनका उल्लेख आश्रय में रहने वाला शुद्र ही उत्तम जाति को प्राप्त होता है। जटासिंहनन्दी ने किया है। किन्तु शूद्रों के कार्यों में उसके कर्ता ने इस तरह इन दोनों परम्पराओं के साहित्य का आलोचन एक नये कर्म का प्रवेश और किया है जिसे उन्होंने न्यग्वृत्ति (सेवावृत्ति) करने से यह बात बहुत साफ हो जाती है कि शूद्रवर्ण का मुख्य शब्द से सम्बोधित किया है। वे शूद्र वर्ण के कार्य का शिल्पकर्म के कर्तव्य तीन वर्गों की सेवा करना मनुस्मृति की देन है। आदिपुराण में रूप में उल्लेख न कर उसके स्थान में मुख्य रूप से न्यग्वृत्ति शब्द यह बात मनुस्मृति से आई हैं। आदिपुराण में जो शूद्रों के स्पृश्य और का निर्देश करते हैं। अस्पृश्य ये भेद किये गए है वह भी मनुस्मृति व इतर ब्राह्मण ग्रन्थों यह तो श्रमण परम्परा की स्थिति है। अब थोड़ा वैदिक का अनुकरण-मात्र है। यह इसी से स्पष्ट है कि आदिपुराण के पहले परम्परा को देखिए। अन्य किसी आचार्य ने शूद्रों के न तो कारू-अकारू और स्पृश्य वैदिक परम्परा में वेदों का प्रथम स्थान है। उनमें ऋग्वेद अस्पृश्य ये भेद किये हैं और न उनका काम तीन वर्गों की सेवा पहला है। इसके पुरुष सूक्त में सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम का निर्देश करते करना ही बतलाया है। आदिपुराणकार को ऐसा क्यों करना पड़ा Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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