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________________ १७४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ भारतीय परंपरा में विषमता के बीज मनुस्मृति ने बोए यह वि.सं. २००४, ९/३३४ उक्त उल्लेखों से स्पष्ट हो जाता है। ९. वही- ९/३३५ उपसंहार १०. वही- १/२ भारतवर्ष में ईस्वी चौथी शताब्दी के पूर्व अछूतपन की ११. वही- १/९१ बीमारी नहीं थी। जब ब्राह्मणधर्म का भारतवर्ष में प्राबल्य हुआ और १२. वही- २/१०३ वे जैन-बौद्धों को परास्त कर मनुस्मृति के आधार से समाज-व्यवस्था १३. वही- ३/१३ को दृढमूल कराने में समर्थ हुए तभी से इस भयानक बीमारी ने हमारे १४. वही- ३/२३९ देश में प्रवेश किया है। १५. वही-४/६१ . बौद्ध इस देश को छोड़कर चले गए इसलिए वे इस १६. वही- ४/८० बीमारी के शिकार न हो सके किन्तु जैनों को ८-९वीं शताब्दी में १७. वही- ४/८१ इसके सामने न केवल नतमस्तक होना पड़ा अपितु समानता के १८. वही- ४/२२३ आधार पर स्थापित अपनी पुरानी सामाजिक व्यवस्था से उन्हें चिरकाल १९. वही- ५/९२ के लिए हाथ धोने पड़े। २०. वही- ५/१०४ ब्राह्मण धर्म की समाज व्यवस्था के अनुसार अछूतपन एक २१. वही- ५/१४० स्थायी वंशानुगत कलंक है जो किसी तरह धुल नही सकता। २२. वही- ८/२० आज के रूढ़िवादी जैनी कुछ भी क्यों न कहें पर हमें इस २३. वही- ८/२७० बात का संतोष है कि जैन धर्म की उदात्त भावना के दर्शन उसके २४. वही- ८/२७१ विशाल साहित्य में आज भी होत हैं जिसका उसने सदा काल २५. वही- ८/२७२ तिरस्कार किया है। तभी तो आचार्य जिनसेन कहते है४१:- २६. वही- ८/२७९ मनुष्यजातिरेकैव जातिकमोंदयोद्भवा। २७. वही- ८/२८० वृत्तिभेदाहिताद् भेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते।। २९. वही- ८/२८२ जाति नाम कर्म के उदय से उत्पन्न हुई मनुष्य जाति एक है। ३०: वही- ८/२८३ यदि उसके चार भेद माने जाते हैं तो केवल आजीविका के कारण ही। ३१. वही- ८/३७४ ३२. वही- ८/४१३ १. उत्तराध्ययन, संपा. भगवान् विजयजी, प्रका. श्रीशचन्द्र भट्टाचार्य, ३३. वही- ८/४१४ कलकत्ता, वि०सं० १९३६, २५/२२ ३४. वही- ८/४१६ वही . २५/२३ ३५. वही- ८/४७८ ३. वही - २५/२४ ३६. वही- १०/१२२ ४. वही - २५/२५ ३७. वही- १०/१२३ ५. वही - २५/२६ ३८. वही- १०/१२५ ६. आदिपुराण, संपा० पं० पन्नालाल जैन, प्रका. भारतीय ज्ञानपीठ ३९. वही- १०/१२६ मूर्तिदेवी जैन ग्रंथमाला, ग्रन्थांक-९, ३२/४६ ४०. वही- १०/१२९ ७. उत्तराध्ययन, २५/३१ ४१. आदिपुराण, संपा० - पं० पन्नालाल जैन, प्रका० भारतीय. ८. मनुस्मृति, अनु, ज्योतिषाचार्य श्रीगणेशदत्त पाठक, बनारस, ज्ञानपीट मूर्तिदेवी जैन ग्रंथमाला, ग्रंथांक-९-३८/४५ सन्दर्भ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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