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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ इस तरह बातचीत करते हुए दोनों राजभवन में लौट आये और अपने- जो वस्तु में स्थायी रहता है जैसे - मनुष्य बच्चा हो या बूढ़ा, स्त्री हो अपने कार्य में लग गए।
या पुरुष, मोटा हो या पतला, उसमें मनुष्यत्व रहेगा ही । किन्तु जब कुछ दिनों के उपरान्त राजा के मन्त्री सुबुद्धि ने राजा के सम्मान कोई व्यक्ति बालक से युवा होता है तो उसका बालपन नष्ट हो जाता है में एक भोज का आयोजन किया। अपने घर बुलाकर सुन्दर एवं स्वादिष्ट और युवापन उत्पन्न होता है । ठीक इसी प्रकार सोना कभी अंगूठी, कभी भोजन कराया और पात्र में पीने के लिए पानी दिया। वह पानी इतना माला, कभी कर्णफूल के रूप में देखा जाता है जिसमें सोना का अंगूठी स्वादिष्ट एवं सरस था कि राजा पानी पीता ही गया, फिर भी उसके मन वाला रूप नष्ट होता है तो माला का रूप बनता है, माला का रूप जब में पानी पीने की लालसा बनी रही। अंतत: राजा ने मन्त्री से पुछा - नष्ट होता है तो कर्णफूल का रूप बनता है । ये बदलने वाले धर्म हमेशा "तुमने मुझे आज जो पानी पिलाया, ऐसा स्वच्छ, सुवासित एवं स्वादिष्ट उत्पन्न एवं नष्ट होते रहते हैं और गुण स्थिर रहता है । अत: जगत् के जल मैंने आज तक नहीं पीया । तुमने यह जल किस कुएँ से मंगवाया सभी पदार्थ उत्पत्ति, स्थिति और विनाश इन तीन धर्मों से युक्त होते हैं। था, मुझे भी बताओ? मंत्री ने कहा - राजन् यह पानी तो सर्वत्र सुलभ एक ही साथ एक ही वस्तु में तीनों धर्मों को देखा जा सकता है। है। यहाँ निकट जलाशय से मँगवाया है। महाराज ने जब जलाशय का मिशाल के तौर पर, एक स्वर्णकार स्वर्णकलश तोड़कर मुक्ट बना रहा नाम बताने का आग्रह किया तो मन्त्री ने कहा - महराज यह मधुर एवं है। उसके पास तीन ग्राहक पहुँचते हैं । जिनमें से एक को स्वर्ण घट सुवासित जल उसी गंदी खाई का है जिसकी दुर्गन्ध से आप व्याकुल चाहिए, दूसरे को स्वर्ण मुकुट चाहिए और तीसरे को केवल सोना । हो गये थे और नाक को बन्द कर लिया था ।११
लेकिन स्वर्णकार की प्रवृत्ति देखकर पहले ग्राहक को दु:ख होता है, राजा ने साश्चर्य मुद्रा में मन्त्री से कहा - तुम मजाक तो नहीं दूसरे को हर्ष और तीसरे को न तो दुःख ही होता है और न ही हर्ष अर्थात् कर रहे हो । मन्त्री ने विनम्र भाव से कहा- नहीं, मैं मजाक नहीं कर वह मध्यस्थ भाव की स्थिति में होता है। तात्पर्य यह है कि एक ही रहा हूँ, जो कुछ भी कह रहा हूँ वह सत्य है । यह कहते हुए मन्त्री ने समय में एक स्वर्ण में विनाश, उत्पत्ति और ध्रुवता देखी जा सकती है। इस गन्दे पानी को साफ करने की प्रक्रिया भी बतायी । अब राजा को इसी आधार पर जैन दर्शन में तत्त्व को परिभाषित करते हुए कहा गया विश्वास हो गया कि संसार का हर पदार्थ अत्यन्त गुण सम्पन्न है । यही है - सत् उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य यानी स्थिरता से युक्त है ।१२ अनेकान्तवाद है।
जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा से जो लोग परिचित नहीं हैं, वे
तुरन्त यह प्रश्न उपस्थित कर सकते हैं कि एक ही वस्तु में ध्रुवता तथा अनेकान्तवाद के मौलिक आधार
उत्पत्ति और विनाश कैसे हो सकता है? क्योंकि स्थायित्व और अनेकान्तवाद जैन दर्शन की आधारशिला है। जैन तत्त्वज्ञान अस्थायित्व दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं । अत: एक ही वस्तु में परस्पर का महल इसी अनेकान्त के सिद्धान्त पर टिका है । वस्तु के अनन्त धर्म विरोधी धर्मों का समन्वय कैसे हो सकता है, किन्तु जैन दर्शन इसका होते हैं । इन अनन्त धर्मों में से व्यक्ति अपने इच्छित धर्मों का समय- समाधान करते हुए कहता है कि कोई भी वस्तु गुण की दृष्टि से ध्रुव समय पर कथन करता है। वस्तु के जितने धर्मों का कथन हो सकता है, स्थायी है तथा पर्याय की दृष्टि से अस्थायी है, उसमें उत्पत्ति और है वे सब वस्तु के अन्दर होते हैं । व्यक्ति अपनी इच्छा से उन धर्मों का विनाश है । पदार्थ में आरोपण नहीं कर देता है । अनन्त या अनेक धर्मों के कारण ही वस्तु अनन्तधर्मात्मक कही जाती है । वस्तु के इन अनन्त धर्मों के अनेकान्तवाद और स्याद्वाद दो प्रकार होते हैं - गुण और पर्याय । जो धर्म वस्तु के स्वरूप का अनेकान्तवाद के व्यावहारिक पक्ष को स्याद्वाद के नाम से निर्धारण करते हैं अर्थात् जिनके बिना वस्तु का अस्तित्व कायम नहीं रह विभूषित किया जाता है । स्याद्वाद अनेकान्तवाद का ही विकासमात्र है। सकता उन्हें गुण कहते हैं । यथा-मनुष्य में 'मनुष्यत्व', सोना में 'स्यात्' शब्द अनेकान्त का द्योतक है ।१३ स्याद्वाद और अनेकान्तवाद 'सोनापन' । मनुष्य में यदि 'मनुष्यत्व' न हो तो वह और कुछ हो सकता दोनों एक ही हैं । इसका कारण यह है कि स्याद्वाद में जिस पदार्थ का है, मनुष्य नहीं । वैसे ही यदि सोना में 'सोनापन' न हो तो वह अन्य कथन होता है, वह अनेकान्तात्मक होता है । दोनों में यदि कोई अन्तर कोई द्रव्य होगा, सोना नहीं । गण वस्तु में स्थायी रूप से रहता है। है तो मात्र शब्दों का । स्याद्वाद में स्यात् शब्द की प्रधानता है तो वह कभी नष्ट नहीं होता और न बदलता ही है, क्योंकि उसके नष्ट हो अनेकान्तवाद में अनेकान्त की। किन्तु मूलत: दोनों एक ही हैं। आचार्य जाने से वस्तु नष्ट हो जायेगी। गुण वस्तु का आन्तरिक धर्म होता है। प्रभाचन्द्र ने 'न्यायकुमुदचन्द्र' में कहा है - अनेकान्तात्मक अर्थ के कथन जो धर्म वस्तु के बाह्यकृतियों अर्थात् रूप-रंग को निर्धारित करते हैं, जो को स्यावाद कहते हैं। स्यात् शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ बताते बदलते रहते हैं, उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं, उन्हें पर्याय कहते हैं। हुए कहा गया है - स्यादिति वादः स्याद्वादः ।१५ यहाँ 'स्यात्' शब्द के जैसे - मनुष्य कभी बच्चा, कभी युवा और कभी बूढ़ा रहता है । गुण दो अर्थ देखने को मिलते हैं - पहला अनेकान्तवाद और दूसरा अनेकान्त
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