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वैदिक एवं श्रमण परम्परा में ध्यान
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यही कारण है कि महर्षि पतञ्जली' ने साधकों को वृत्तियों अथवा हो जाता है और यही ध्यान है । बौद्ध-परम्परा में ध्यान के स्वरूप को विकल्पों से मुक्त होने का निर्देश दिया है, क्योंकि विकल्परहित अवस्था स्पष्ट करते हए कहा गया है कि किसी विषय पर चित्त को स्थिर कर ही ध्यान साधना का लक्ष्य है।
चिन्तन करना ही ध्यान है। . आत्मा को पूर्वकृत कर्मों से उत्पन्न संस्कारों से मुक्त करने के भारतीय संस्कृति में ध्यान ऐसी साधना है जो व्यक्ति के अन्तर लिए चित्त को विशुद्ध किया जाता है । पूर्वकृत कर्मों या संस्कारों के का शोधन करती है । इसके अभ्यास से व्यक्ति वृत्तियों, विकल्पों से मुक्त कारण व्यक्ति प्रमादी बन जाता है, निरन्तर इसी दिशा में चिन्तन करता होकर एक-चित्तता की स्थिति को प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति अपने रहता है कि कैसे उसे भौतिक सुख-साधन के सारे उपक्रम प्राप्त हो क्षुद्र स्वार्थों और राग-द्वेष की प्रवृत्ति को कम करके समाज में एक जाएँ । एक साधन की उपलब्धि होने पर दूसरे के लिए प्रयत्न प्रारम्भ सुव्यवस्था की नींव डाल सकता है । उसकी यह प्रवृत्ति उसे तो सुख कर देता है। किन्तु इस तरह उसके प्रयत्न अनन्तकाल तक चलते रहें और शान्ति का वातावरण उपलब्ध कराती ही है साथ ही साथ समाज तब भी उसकी आकाक्षांओं या इच्छाओं की पूर्ति सम्भव नहीं है। एक के सभी प्राणियों को भी इस दिशा में विकास करने का अवसर प्रदान इच्छा या विकल्प उपस्थित हुआ उसका अभी समाधान भी नहीं हुआ कि करती है । ध्यान से व्यक्ति विनम्र हो जाता है, उसमें स्वार्थ, अभिमान दूसरा विकल्प उठ खड़ा हुआ। कभी-कभी परस्पर विरोधी विकल्पों या एवं दीनता का धीरे-धीरे अभाव होता जाता है और मैत्री, स्वाभिमान, इच्छाओं से व्यक्ति के मन में संघर्ष का ऐसा वातावरण उपस्थित हो सहृदयता झलकने लगती है । ध्यान की नियमित साधना चिन्तन और जाता है कि मनुष्य स्वयं से भागने लगता है, यह एक अत्यन्त दु:खद व्यवहार की दूरी सदा के लिए समाप्त कर देती है । आज आचरण एवं स्थिति है । ध्यान की साधना से व्यक्ति अप्रमत्त चेता हो जाता है। आस्था के बीच जो खाईं बन गई है उसका सही निदान ध्यान है। सांसारिक उपलब्धियों की नश्वरता को जानकर उनके प्रति उसका लगाव ध्यान एवं वैदिक परम्परा कम होने लगता है। व्यक्ति की विवेक शक्ति जग जाती है। वह नियंत्रित वैदिक वाङ्मय में वेद और उपनिषद् अति प्राचीन हैं। इनमें एवं संयमित जीवन जीने में विश्वास करने लग जाता है। उसका मन योग, ध्यान, साधना विषयक विचार स्थान-स्थान पर मिलते हैं। विकल्पों के द्वन्द्व में भटकना बन्द कर देता है । उसकी यह अवस्था वैदिक-परम्परा में ध्यान-विषयक साधना का उल्लेख योग के अन्तर्गत ध्यान की साधना के लिए उपयुक्त भूमिका प्रस्तुत कर देती है, क्योंकि माना जाता है, क्योंकि योग प्रणाली ही सर्वाधिक प्रचलित प्रणाली थी। वह अपने मन को एक विचार बिन्दु पर स्थिर कर सकता है । जब किसी योग-साधना मंत्रयोग, लययोग, हठयोग, राजयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, व्यक्ति का मन किसी एक वस्तु पर केन्द्रित हो जाता है तो वह ध्यान ज्ञानयोग आदि अपने विविध रूपों में प्रचलित रही हैं । वैदिक-वाङ्मय कहलाता है । आचार्य उमास्वाति तत्त्वार्थसूत्र में ध्यान की अवधारणा को में वेदों को बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है । यजुर्वेद में योग के स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मन के चिन्तन का एक ही वस्तु पर सम्बन्ध में कहा गया है कि मोक्ष की इच्छा रखने वाले हम (योगी) लोग अवस्थान करना ध्यान है।
__शुद्ध मन (शुद्धान्त:करण) से योगफल के द्वारा प्रकाशमय आनन्दस्वरूप मानव मन बहुत चंचल है। वह कभी भी एक स्थान पर नहीं अनन्त ऐश्वर्य में स्थित होते हैं। यहाँ योग साधना योगी की आध्यात्मिक टिक पाता है। मानव-मन की यह चंचलता ही मनुष्य के दु:खों का वृत्ति का परिणाम है। योगीजन योगाभ्यास के द्वारा मुक्ति या मोक्ष-पथ कारण बनती है । व्यक्ति सदैव यही विचार करता रहता है कि सारी पर अग्रसर होते हैं और परमसुख को प्राप्त करते हैं । यह योग अथवा दुनियाँ उसी के चारों तरफ आकर्षित हो, सभी मनोनुकूल आचरण कर। ध्यान साधना का आध्यात्मिक स्वरूप माना जा सकता है। बाद में सभी परिस्थितियाँ उसके मन के अनुसार घटित हों । लेकिन यह सम्भव औपनिषदिक साहित्य में ध्यान पर विस्तृत चिन्तन हुआ और योग का नहीं हो जाता है। परिणामस्वरूप व्यक्ति इस दिशा में और अधिक प्रयत्न आत्मपरक अथवा अध्यात्मपरक विवेचन भी किया गया । इसे आत्मकरना प्रारम्भ कर देता है। उसके उस प्रयत्न के परिणाम उसकी तृष्णा ज्योति, ब्रह्म-स्वरूप, आत्म-दर्शन को प्राप्त करने वाला कारक माना को निरन्तर बढ़ाते रहते हैं, जो उसके दु:ख का कारण बनते हैं। ध्यान गया। विष्णुपुराण में कहा गया है कि आत्म-ज्योति के दर्शन के लिए की साधना से व्यक्ति अपनी इस भूल को समझता है । वह यह विचार साधना की आवश्यकता होती है । जब साधना समाधि की ओर अग्रसर करता है कि जब मैं स्वयं ऐसा चाहता हूँ, मेरा स्वयं का मन ऐसा होती है तब ध्यान अनिवार्य हो जाता है। समाधि की प्राप्ति में ध्यान चाहता है, तो दूसरा ऐसा क्यों नहीं चाहेगा। जैसे ही उसके मन में यह प्रमुख है। ध्यान की अनुभूति से ही आत्म-स्वरूप प्रगट होता है और भाव जागता है, वह तृष्णारूपी विकल्पों के मिथ्यात्व से अवगत हो ध्यान साधना इन्द्रियों की बाह्य प्रवृत्तियों से नहीं होती वरन् अन्तर्मुखी जाता है। अब उसके मन में एक ही बात कौंधती है, वह है स्वयं को वृत्ति से होती है ।६ अन्तर्मुखी वृत्ति व्यक्ति को रागादि प्रवृत्तियों से मुक्त सुधारने की । जब वह इस अवस्था में आ जाता है तो उसके मन में करती है, फलत: साधक भावरहित होकर अपने साधना पथ पर आगे चलने वाली बहुमुखी चिन्तन की धारा एक ओर प्रवाहित होने लगती बढ़ता जाता है और अन्त में ब्रह्मस्वरूप हो जाता है । कठोपनिषद् में है। इस कारण व्यक्ति अनेक चित्तता से दूर हटकर एक चित्त में स्थित कहा गया है कि योग-विद्या का पालन करके ही नचिकेता रागादि से
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