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________________ जुत्तोत्ति सजोगिजिणो अणाइणिहणारिसे उत्तो । - गो. जीव ६३-६४ ९९. भगवतीसूत्र, शतक ५ १००. आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम एक कोटिपूर्व वर्ष प्रमाण। १०१. जो जीव के अनुजीवी गुणों को न घातें उन्हें अघातिया कर्म कहते हैं । ये चार हैं - वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र । १०२. सीलेसिं संपत्तो णिरुद्धणिस्सेसआसवो जीवो। कम्मरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होदि ॥ - गो० जी०६५ १०३. दग्घे बीजे यथात्यनतं प्रादुर्भवति नाङ्करः । कर्मबीजे तथा दग्धे रोहति भवाङ्करः ।। - तत्त्वार्थाधिगम भाष्य, १०.७ १०४. शैल (पर्वत) के समान कम्पन (हलन-चलन क्रिया) से रहित होकर शैलेशी अवस्था को प्राप्त हुए केवली भगवान् के व्युपरतक्रियानिवृत्ति नाम का सर्वोत्कृष्ट शुक्लध्यान होता है । वे योगों का पूर्णरूप से निरोध कर अयोग केवली नामक १४वें गुणस्थान में प्रविष्ट होकर शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हुए इस ध्यान के ध्याता होते हैं। १०५. अट्टविहकममवियला सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा। अट्ठगुणा किदकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा॥ - गो० जी०, ६८ वैदिक एवं श्रमण परम्परा में ध्यान डॉ० रज्जन कुमार ध्यान एक दिव्य साधना है। भारतीय संस्कृति के मनीषी चाहे झाँककर देखता है और उन दोषों के परिमार्जन की विधि पर विचार वे वैदिक परम्परा के हों अथवा श्रमण परम्परा के, सबने ध्यान-साधना करता है, तब वह प्रगति पथ पर आगे बढ़ता है । अपने भीतर के दोष के क्षेत्र में पर्याप्त उहापोह की है। दोनों ही परम्परा में ध्यान को एक को देखना एवं चिन्तन-मनन करना एवं उनसे मुक्त होने का प्रयत्न करना अनुष्ठान (कर्मकाण्ड) न मानकर आन्तरिक साधना माना गया है, ही ध्यान है । यही आध्यात्मिक साधना है, क्योंकि इस साधना का प्रमुख जिसकी सहायता से मनुष्य के व्याकुल हृदय, अस्थिर चित्त या उद्विग्न लक्ष्य है और अपने अन्तर को प्रकाशित करना और इस प्रकाश के मन को शान्त करने का प्रयत्न किया जाता है । यह माना गया है कि आलोक से अपने अन्तर में छिपी हुई वासनाओं को निर्मूल कर सप्त पड़े मोक्ष-मुक्ति, कैवल्य, विशुद्धि जैसे सर्वोच्च आध्यात्मिक मूल्य को हुए, सिद्धत्व के बीज को विकसित करना । इस बीज को विकसित करने ध्यानाभ्यास के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। आज के वैज्ञानिक युग की साधना ध्यान है। में तकनीकी विकास के द्वारा प्राप्त गतिशीलता ने मानव की चित्तवृत्ति मानव जीवन आकांक्षाओं और इच्छाओं से उत्पन्न समस्याओं को जो अस्थिरता दी है और जिसके कारण वह तनावग्रस्त होता जा रहा का महासागर है । इन समस्या-सागरों के कारण ही व्यक्ति अपने मूल है उस वृत्ति को स्थिरता और सन्तुलन देने का काम भी ध्यान कर सकता उद्देश्य से भटक जाता है और वृत्तियों के विभिन्न रूपों से प्रभावित होता रहता है, समस्याओं का निदान नहीं कर पाने के कारण विक्षिप्त होकर नाना प्रकार के दुःखों से पीड़ित होता रहता है । ध्यान के अभ्यास से ध्यान का स्वरूप व्यक्ति समस्याओं के मूल कारण को खोजने का प्रयत्न करता है। इससे मानव का परम पुरुषार्थ सच्चे सुख और शान्ति को प्राप्त चित्त धीरे-धीरे शान्त व निर्मल होता है, बुद्धि और विवेक जागृत होते करना है । परम शान्ति से द्वन्द्व मिटते हैं । राग-द्वेष, कामनादि द्वन्द्व हैं, जिससे वह किसी भी बात को गहराई एवं स्पष्टता से पकड़ने लगता मनुष्य की विभिन्न वृत्तियों के परिचायक माने गये हैं। मनुष्य की है। अत: ध्यानी के समक्ष जब भी कोई समस्या उपस्थित होती है तो चित्तवृत्तियाँ इन्हीं के कारण समत्व भाव में नहीं रह पाती हैं और वह उसका चित्त तुरन्त समस्या के वास्वतिक कारण तक पहुँच जाता है और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों से विचलित होता रहता है । जब व्यक्ति वास्तविक मूल कारण के प्राप्त हो जाने पर समस्या का निवारण सुगम आत्म-दर्शन या स्वदर्शन की साधना करता है, अपने भीतर के दोषों को हो जाता है। यह अवस्था कम से कम विक्षेपों के कारण ही सम्भव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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