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________________ १३६ रहती हैं। परन्तु अग्नि का अग्नित्व या तेजत्व नष्ट नहीं होता । अभिप्राय यह है कि दीपक जिसे हम अनित्य मानते हैं वह मात्र अनित्य ही नहीं, बल्कि नित्य भी है। इसी प्रकार आकाश को सामान्यतः नित्य माना जाता है । अन्य दर्शन भी ऐसा मानते हैं, क्योंकि आकाश अपने गुण के कारण नित्य तथा पर्याय के कारण अनित्य है। जैन दर्शन में आकाश को अजीव माना गया है। इसका सामान्य धर्म आश्रय देना है। यह इसका जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७ है । किन्तु विशेष व्यक्ति अथवा वस्तु को जो आश्रय इसके द्वारा दिये जाते हैं, वे उत्पन्न एवं नष्ट होते हैं। यथा- एक व्यक्ति कमरे में बैठा है। इस समय वह आकाश के अन्दर एक निश्चित आश्रय को प्राप्त कर रहा है, लेकिन थोड़ी देर बाद वह कमरे से निकलकर मैदान में बैठ जाता है तो ऐसी स्थिति में उसका आश्रय जो कमरे में था, नष्ट हो गया और मैदान में उत्पन्न हो गया। पहले उसकी स्थिति कमरे में थी अब मैदान में हो गयी । यही आकाश के द्वारा दिए गये आश्रय का उत्पन्न तथा नाश होना है। आकाश का पर्याय आकाश की अनित्यता है तथा सामान्य रूप से सबको आश्रय देना आकाश का गुण है जो आकाश की नित्यता है। इसी प्रकार जीव की नित्यता एवं अनित्यता के विषय में भगवान् महावीर ने कहा है गौतम ! जीव किसी दृष्टि से शाश्वत है तो किसी दृष्टि से अशाश्वत । गौतम ! द्रव्यार्थिक दृष्टि से जीव शाश्वत है तो भावार्थिक दृष्टि से अशाश्वत ।" अर्थात् जीव में जीवत्व का कभी अभाव नहीं होता। जीव चाहे किसी भी अवस्था में हो, जीव ही होता है। यह द्रव्यार्थिक दृष्टि है। इस संदर्भ में जीव नित्य है। जीव किसी न किसी पर्याय में होता है । एक पर्याय को छोड़कर दूसरी पर्याय को ग्रहण करता है। यह पर्यायार्थिक दृष्टि है । इस सन्दर्भ में जीव अनित्य है। लोक की सीमितता याअसीमितता के सवाल का समाधान भी इसी प्रकार किया है। लोक द्रव्य दृष्टि से सान्त है, क्षेत्र दृष्टि से सान्त है, काल दृष्टि से अनन्त है और भाव (प्रक्रिया) दृष्टि से अनन्त है।" लोक को चार प्रकार से जाना जाता है द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप से द्रव्य की दृष्टि से लोक सान्त है, क्योंकि वह संख्या में एक है। क्षेत्र की दृष्टि में भी सान्त है, क्योंकि सम्पूर्ण आकाश के कुछ क्षेत्र में ही लोक का वास है । काल की दृष्टि से लोक अनन्त है क्योंकि वर्तमान, भूत और भविष्य का कोई क्षण ऐसा नहीं जिसमें लोक का अस्तित्व न हो ऐसे ही भाव की दृष्टि से भी लोक अनन्त है, क्योंकि एक लोक के अनन्त पर्याय हैं। इस तरह जैन दर्शन नित्यता एवं अनित्यता के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है। यही अनेकान्तवाद है। सामान्य और विशेष सामान्य और विशेष के विषय में भी मत-मतान्तर पाये जाते हैं। कोई सिर्फ सामान्य की सत्ता को स्वीकार करता है तो कोई केवल Jain Education International विशेष की सत्ता की । वेदान्त, सांख्य, मीमांसा आदि सामान्य की सत्ता को स्वीकार करते हैं। इन लोगों का कहना है कि जो कुछ भी है सामान्य है, सामान्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यदि सामान्य न हो तो विशेष का अस्तित्व ही न हो। 'मनुष्यत्व' सामान्य है और मनुष्यत्व के बिना राम मोहन, सोहन आदि विशेष मनुष्यों का अस्तित्व नहीं हो सकता है। अतः सामान्य की ही सत्ता है। ठीक इसके विपरीत बौद्ध दर्शन की मान्यता है। बौद्ध दर्शन विशेष की सत्ता में विश्वास करता है, विशेष के कारण ही किसी की सत्ता होती है। सामान्य की सत्ता विशेष से अलग नहीं हो सकती। क्या मनुष्यत्व राम, श्याम आदि मनुष्यों से अलग पाया जा सकता है ? नहीं! अतः तत्त्व सामान्य नहीं बल्कि विशेष है। वैशेषिक दर्शन सामान्य और विशेष दोनों की सत्ता में विश्वास करता है, लेकिन दोनों को अलग-अलग मानते हुए कहता है कि सामान्य विशेष दोनों ही समवाय सम्बन्ध से सम्बन्धित हैं। जैन दर्शन का कथन इन सब मान्यताओं से बिल्कुल अलग है। जैन दर्शन वैशेषिक दर्शन की भाँति सामान्य और विशेष दोनों की सत्ता मानता है, परन्तु अलग-अलग नहीं । दोनों ही सापेक्ष हैं। मनुष्यत्व के बिना किसी मनुष्य विशेष का बोध नहीं हो सकता और मनुष्य विशेष के बिना मनुष्यत्व (सामान्य) कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। अतः सामान्य और विशेष दोनों सापेक्षतः देखे जाते हैं। यहीं जैन दर्शन का अनेकान्तभाव है। - अस्ति और नास्ति अस्ति नास्ति दो एकान्तवादी पक्ष हैं। एक पक्ष कहता है कि सर्व अस्ति तो दूसरा पक्ष कहता है कि सर्व नास्ति। इस तरह दोनों ही एकान्तवादी हैं । अनेकान्तवाद ही सही अर्थों में इस संघर्ष का एक मात्र समाधान है। भगवान् महावीर ने सर्व अस्ति एवं सर्व नास्ति दोनों पक्षों का अनेकान्त द्वारा समर्थन किया है। उन्होंने कहा है कि जो अस्ति है वही नास्ति है। 'भगवतीसूत्र' में कहा गया है हम जो अस्ति है उसे अस्ति कहते हैं, जो नास्ति है. उसे नास्ति कहते हैं। प्रत्येक पदार्थ है भी और नहीं भी है। अपने निज-स्वरूप से है और पर स्वरूप से नहीं। अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता, पितारूप में सत् है और पररूप की अपेक्षा से पिता, पितारूप में असत् है । यदि पर-पुत्र की अपेक्षा से पिता ही है तो वह सारे संसार का पिता हो जायेगा, जो असम्भव है। इसे और भी सरल भाषा में हम इस तरह कह सकते हैं गुड़िया चौराहे पर खड़ी है। एक ओर से छोटा बालक आता है, वह उसे माँ कहता है। दूसरी ओर से एक वृद्ध आता है, वह उसे पुत्र कहता है। तीसरी ओर से एक युवक आता है, वह उसे पत्नी कहता है। इसी तरह कोई ताई, कोई मामी, तो कोई फुफ़ी और कोई दीदी कहता है सभी एक ही व्यक्ति को विभिन्न नामों से सम्बोधित करते हैं तथा परस्पर संघर्ष करते हैं कि यह तो माँ ही है, पुत्री ही है, पत्नी ही है, दीदी ही है आदि.....। अब | प्रश्न उठता है कि आखिर गुड़िया है क्या ? इस समस्या का समाधान For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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