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जैन धर्म की आध्यात्मिक जीवनदृष्टि
प्रो० सागरमल जैन
मानव जाति को दुःखों से मुक्त करना ही भगवान् महावीर उपलब्धि ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। जैन विचारकों की दृष्टि में का प्रमुख लक्ष्य था। उन्होंने इस तथ्य को गहराई से समझने का अध्यात्मवाद का अर्थ है, पदार्थ को परममूल्य न मानकर आत्मा को प्रयत्न किया कि दुःख का मूल किसमें है। इसे स्पष्ट करते हुए परममूल्य मानना। भौतिकवादी दृष्टि मानवीय दुःख और सुख का उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि समस्त भौतिक और मानसिक आधार वस्तु को मानकर चलती है उसके अनुसार सुख और दुःख दुःखों का मूल व्यक्ति की भोगासक्ति में है। यद्यपि भौतिकवाद वस्तुगत तथ्य है। भौतिकवादी सुखों की लालसा में वस्तुओं के पीछे मनुष्य की कामनाओं की पूर्ति के द्वारा दुःखों का निवारण का प्रयत्न दौड़ता है और उनके उपलब्धि हेतु चोरी, शोषण एवं संग्रह जैसी करता है किन्तु वह उस कारण का उच्छेद नहीं कर सकता, जिससे सामाजिक बुराईयों को जन्म देता है। इसके विपरीत जैन अध्यात्मवाद दुःख का यह स्रोत प्रस्फुटित होता है। भौतिकवाद के पास मनुष्य की हमें यह सिखाता है कि सुख और दुःख का केन्द्र वस्तु में न होकर तृष्णा को समाप्त करने का कोई उपाय नहीं है। वह इच्छाओं की पूर्ति आत्मा में है। जैन दर्शन के अनुसार सुख-दुःख आत्मकृत हैं। अत: के द्वारा मानवीय आकांक्षाओं को परितृप्त करना चाहता है, किन्तु यह वास्तविक आनन्द की उपलब्धि पदार्थों से न होकर आत्मा से होती अग्नि में डाले गये घृत के समान उसे परिशान्त करने की अपेक्षा है। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्टरूप से कहा गया है कि आत्मा ही अपने बढ़ाता ही है। उत्तराध्ययनसूत्र में बहुत ही स्पष्टरूप से कहा गया है सुख-दुःखों का कर्ता और भोक्ता है। वही अपना मित्र है और वही कि चाहे स्वर्ण और रजत के कैलाश के समान असंख्य पर्वत भी अपना शत्रु हैं सुप्रतिष्ठित अर्थात् सद्गुणों में स्थित आत्मा मित्र है और खड़े हो जाये किन्तु वे मनुष्य की तृष्णा को पूरा करने में असमर्थ दुष्पतिष्ठित अर्थात् दुर्गुणों में स्थित आत्मा शत्रु है। आतुरप्रत्याख्यान हैं। न केवल जैनधर्म अपितु सभी आध्यात्मिक धर्मों ने एकमत से नामक जैन ग्रन्थ में अध्यात्म का हार्द स्पष्ट करते हुए कहा गया है इस तथ्य को स्वीकार किया है कि समस्त दुःखों का मूल कारण कि ज्ञान और दर्शन से युक्त शाश्वत आत्मतत्त्व ही मेरा है, शेष सभी आसक्ति, तृष्णा या ममत्व बुद्धि है, किन्तु तृष्णा की समाप्ति का बाह्य पदार्थ संयोग से उपलब्ध हुए है, इसलिए वे मेरे अपने नहीं है। उपाय इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं है। भौतिकवाद हमें इन संयोगजन्म उपलब्धियों का अपना मान लेने या उन पर ममत्व सुख और सुविधा के साधन तो दे सकता है किन्तु वह मनुष्य की रखने के कारण ही जीव दु:ख परम्परा को प्राप्त होता है, अत: उन आसक्ति या तृष्णा का निराकरण नहीं कर सकता। इस दिशा में सांयोगिक पदार्थों के प्रति ममत्व भाव का सर्वथा विसर्जन कर देना उसका प्रयत्न तो टहनियों को काटकर जड़ को सींचने के समान है। चाहिए। संक्षेप में जैन अध्यात्मवाद के अनुसार देह आदि सभी जैन आगमों में स्पष्टरूप से कहा गया है कि तृष्णा आकाश के समान आत्मेतर पदार्थों के प्रति ममत्व बुद्धि का त्याग ही साधना का मूल अनन्त है, उसकी पूर्ति सम्भव नहीं है। यदि हम मानव जाति को उत्स है। वस्तुतः जहाँ अध्यात्मवाद पदार्थ के स्थान पर आत्मा को स्वार्थ, हिंसा, शोषण, भ्रष्टाचार एवं तज्जनित दुःखों से मुक्त करना अपना साध्य मानता है, वहाँ भौतिकवाद में पदार्थ ही परम मूल्य बन चाहते हैं, तो हमें भौतिकवादी दृष्टि का त्याग करके आध्यात्मिक दृष्टि जाता है। अध्यात्मवाद में आत्मा ही परम मूल्य होती है। जैन का विकास करना होगा।
अध्यात्मवाद आत्मोपलब्धि के लिए पदार्थों के प्रति ममत्व बुद्धि का
त्याग आवश्यक मानता है। उसके अनुसार ममता के विर्सजन से ही आध्यात्मवाद क्या है?
समता का सर्जन होता है। किन्तु यहाँ हमें यह समझ लेना होगा कि अध्यात्मवाद से हमारा तात्पर्य क्या है? अध्यात्म शब्द की व्युत्पति अधि+आत्म से जैन अध्यात्मवाद का लक्ष्य आत्मोपलब्धि है अर्थात् वह आत्मा की श्रेष्ठता या उच्चता का सूचक है। आचारांग जैनधर्म में ममत्व के विसर्जन को ही आत्मोलब्धि का में इसके लिये अज्झप्प या अज्झत्थ शब्द का प्रयोग है जो आन्तरिक एकमात्र उपाय इसलिए माना गया है कि जब तक व्यक्ति में ममत्व पवित्रता या आन्तरिक विशुद्धि का सूचक है। जैन धर्म के अनुसार बुद्धि या आसक्ति भाव रहता है तब तक व्यक्ति की दृष्टि 'स्व' में नहीं अध्यात्मवाद वह दृष्टि है जो यह मानती है कि भौतिक सुख- अपित् 'पर' अर्थात् पदार्थ में केन्द्रित रहती है। वह पर में स्थित सुविधाओं की उपलब्धि ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है। दैहिक एवं होता है। यह पदार्थ केन्द्रित दृष्टि ही या पर में स्थित होना ही आर्थिक मूल्यों के परे उच्च मूल्य भी हैं और इन उच्च मूल्यों की भौतिकवाद का मूल आधार है। जैन दार्शनिकों के अनुसार 'पर'
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