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________________ अध्यात्मवाद : एक अध्ययन गीता के अनुसार- आत्मा को शस्त्र छेद नहीं सकते, अग्नि है सांख्य दृष्टि से आत्मा कर्ता नहीं, किन्तु फल का भोक्ता है। कर्तृत्व जला नहीं सकती. पानी गीला नहीं कर सकता और हवा सखा नहीं प्रकति में है। सकती है। जैसे मानव जीर्ण-शीर्ण वस्त्र को उतार कर नवीन वस्त्रों को मीमांसा दर्शन के अनुसार आत्मा एक है, किन्तु देहादि की धारण करता है, वैसे ही यह आत्मा भी जीर्ण शरीर का परित्याग विविधता के कारण वह अनेक प्रतीत होता है। मीमांसक कुमारिल ने कर नवीन शरीर को धारण करता है। आत्मा को नित्य नित्य माना है। इस प्रकार हम देखते हैं, वैदिक वैदिक संस्कृति में ही नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक दार्शनिकों ने भी आत्मा के सम्बन्ध में गहन चिन्तन किया है, किन्त और योग इन दर्शनों का समावेश होता है। ये सभी दर्शन आत्मा को जैन दर्शन जितना गंभीर चिन्तन वे नहीं कर पाये हैं। अनेकान्त दृष्टि स्वीकार करते हैं और आत्मा, मोक्ष आदि की स्वतन्त्र परिभाषाएं से जैन दर्शन ने आत्मा का सर्वाङ्ग विवेचन किया है, वैसा अन्यत्र प्रस्तुत करते हैं। नैयायिक व वैशेषिक दर्शन का मन्तव्य है कि आत्मा दुर्लभ है। एकान्त, नित्य और सर्वव्यापी है। इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख-दु:ख उपर्युक्त पंक्तियों में जैन, बौद्ध और वैदिक दर्शन-मान्य आदि के रूप में जो परिर्वतन परिलक्षित होता है, वह आत्मा के आत्मा की एक हल्की सी झाँकी प्रस्तुत की गई है। आधुनिक गुणों में है, स्वयं आत्मा में नहीं। आत्मा के गुण आत्मा से भित्र हैं, वैज्ञानिक भी आत्मा के मौलिक अस्तित्व को स्वीकार करने लगे हैं। इनसे हम आत्मा का अस्तित्व जानते हैं। प्रोफेसर अलबर्ट आइंस्टीन ने, जो पाश्चात्य देशों के प्रतिभा-सम्पन्न सांख्य दर्शन आत्मा को कूटस्थ नित्य मानता है उसके विद्वान् माने गये हैं, लिखा है- "मैं जानता हूँ कि सारी प्रकृति में अनुसार आत्मा सदा-सर्वदा एकरूप रहता है। उसमें परिवर्तन नहीं चेतना काम कर रही है" इनके अतिरिक्त अन्य अनेक मूर्धन्य होता। संसार और मोक्ष भी आत्मा के नहीं, प्रत्युत प्रकृति के हैं।सुख- वैज्ञानिकों के विचार भी मननीय हैं। पर स्थानाभाव के कारण उन्हें दु:ख और ज्ञान भी प्रकृति के धर्म हैं, आत्मा के नहीं। आत्मा तो यहाँ उद्भत करना सम्भव नहीं हैं। स्थायी, अनादि, अनन्ते, अविकारी, नित्य चित्स्वरूप और निष्क्रिय Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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