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________________ अध्यात्मवाद : एक अध्ययन आचार्य देवेन्द्र मुनि शास्त्री भारतवर्ष सदैव अध्यात्म-विद्या की लीला-भूमि रहा है। और व्यापक विचार किया गया है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा प्रतापपूर्ण प्रतिभासम्पन्न विज्ञों ने अध्यात्म-क्षेत्र में जिस चिरन्तन सत्य चैतन्य स्वरूप है, षड द्रव्यों में स्वतंत्र द्रव्य है। नव पदार्थों में प्रथम का साक्षात्कार किया, उसकी प्रभास्वर-रश्मिमाला से विश्व का प्रत्येक पदार्थ है। सप्त तत्त्व में प्रथम तत्त्व है। पंचास्तिकाय में चतुर्थ अस्ति भभाग आलोकित है। भारतीय इतिहास व साहित्य प्रस्तुत कथन का काय है। उपयोग ही उसका मुख्य लक्षण है उपयोग शब्द ज्ञान और ज्वलन्त प्रमाण है कि आध्यात्मिक गवेषणा, अन्वेषणा और उसका दर्शन का संग्राहक हैं। चेतना के बोधरूप व्यापार को उपयोग कहते सम्यक् आचरण ही भारत के सत्यशोधी साधकों के जीवन का हैं। वह दो प्रकार का है: (१) साकार उपयोग, (२) और अनाकार एकमात्र अभिलषित लक्ष्य रहा है। आध्यात्मिक उत्कान्ति के द्वारा ही उपयोग। साकार उपयोग ज्ञान है और अनाकार उपयोग दर्शन है जो भारत ने विश्व का नेतृत्व किया और विश्वगुरु के महत्त्वपूर्ण पद से उपयोग पदार्थों के विशेष धर्म का (जाति, गुण, क्रिया आदि का) अपने को समलंकृत किया। बोध कराता है वह साकार उपयोग है और जो सामान्य सत्ता का बोध भारतीय संस्कृति की विचारधाराएँ विविध रूपों व रंगों में कराता है वह अनाकार उपयोग है। यों आत्मा में अनन्त गुण पर्याय व्यक्त हुई हैं, जिनकी गणना करना असम्भव न सही कठिन अवश्य हैं किन्तु उन सभी में उपयोग ही प्रमुख और असाधारण है। वह है, तथापि यह निर्विवाद है कि जैन, बौद्ध और वैदिक ये तीनों स्वपर प्रकाशक होने से अपना तथा दूसरे द्रव्य, गुण, पर्यायों का धाराएँ ही उनमें प्रमुख हैं। इन त्रिविध धाराओं में ही प्राय: अन्य सभी ज्ञान करा सकता है। सुख-दुःख का अनुभव करना, अस्ति-नास्ति को धाराएं अन्तर्हित हो जाती हैं। उनमें अध्यात्मविद्या की गरिमा का जो जानना, यह सब उपयोग का ही कार्य है। उपयोग जड़ पदार्थों में नहीं मधुर गान गाया गया है वह भौतिक-भक्ति के युग में पले-पोसे होता क्योंकि उनमें चेतना शक्ति का अभाव है। इन्सान को भी विस्मय से विमुग्ध कर देता है। विमुग्ध ही नहीं, जो आत्मा को ज्ञानस्वरूप कहा है। इसका अर्थ यह नहीं कि मानव भौतिकता की चकाचौंध में प्रतिपल प्रतिक्षण बहिर्द्रष्टा बनते जा वह ज्ञान के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है, इसमें दर्शन भी है, आनन्द रहे हैं, जिन्हें अन्तर्दर्शन का अवकाश नहीं है, आत्म-मार्जन की भी है, अनन्तवीर्य भी है, अन्य धर्म भी हैं। वस्तुत: ज्ञान और आत्मा चिन्ता नहीं हैं, अन्तरतम की परिशुद्धि और परिष्कृति का उद्देश्य में गुण-गुणी का तादात्म्य सम्बन्ध है। ज्ञान गुण है, आत्मा गणी जिनके सामने नहीं है, केवल बहिर्दर्शन ही जिनके जीवन का परम (द्रव्य) है। इसी भाव को व्यक्त करने के लिये भगवतीसूत्र में कहा है और चरम ध्येय है, उन्हें भी प्रस्तुत संगीत एकबार तो आत्म-दर्शन आत्मा ज्ञान भी है, और ज्ञान के अतिरिक्त भी है किन्तु ज्ञान नियम की पवित्र प्रेरणा प्रदान करता ही है। से आत्म ही है। आत्मा साक्षात् ज्ञान है और ज्ञान ही साक्षात् आत्मा मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? यहाँ से कहाँ आऊँगा? है। जो आत्मा है वही विज्ञाता है, जो विज्ञाता है वही आत्मा है। जो क्या मेरा पुनर्जन्म होगा? मेरा स्वरूप क्या है? क्या मैं देह हूँ? इस तत्त्व को स्वीकार करता है वह आत्मा-वादी है। ज्ञान और आत्मा इन्द्रिय हूँ? मन हूँ? या इन सबसे भिन्न कुछ और हूँ? इन सभी के द्वैत को जैनदर्शन स्वीकार नहीं करता है। आत्मा और ज्ञान में प्रश्नों का सही समाधान भारत के मनीषी मूर्धन्य-मुनियों ने प्रदान तादात्म्य है, वे अलग-अलग तत्त्व नहीं हैं, जैसा कि कणाद आदि किये हैं। भाषा, परिभाषा, प्रतिपादन-पद्धति और परिष्कार में स्वीकार करते हैं। अन्तर होने पर सूक्ष्म व समन्वय दृष्टि से अवलोकन करने पर विस्तार की दृष्टि से आत्मा का लक्षण बतलाते हुए भगवान् सूर्य के प्रकाश की भांति यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि वे सभी एक महावीर ने कहा है- ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य, उपयोग ये ही राह के राही हैं। जीव के लक्षण हैं। अर्थात् आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, (शक्ति) और उपयोगमय है। जैन दृष्टि : आत्मा अरूपी है। शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श से भारतीय संस्कृति में जैन संस्कृति का स्वतन्त्र स्थान है, रहित है। वह न लम्बा है. न छोटा है. न टेढा है न गोल. न चोरस स्वतन्त्र विचार धारा है और स्वतन्त्र विरूपण-पद्धति है जैन दर्शन है, न मण्डलाकार है अर्थात् उसकी अपनी कोई आकृति नहीं है। न को जिनदर्शन या आत्म दर्शन भी कह सकते हैं। जैन-दर्शन में हल्का है, न भारी है। क्योंकि लघुता-गुरुता जड़के धर्म हैं। वह न स्त्री आत्मा के लक्षण और स्वरूप के सम्बन्ध में अत्यन्त सूक्ष्म, गम्भीर है, न पुरुष है, क्योंकि ये शरीराश्रित उपाधियाँ हैं। वह अनादि है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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