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भगवान् महावीर : समताधर्म के प्ररूपक
पं० दलसुख मालवणिया
श्रमण-संस्कृति की ही यह विशेषता है कि उसमें प्राकृतिक परिस्थिति : आधिदैविक देवों या नित्यमुक्त ईश्वर का पूज्यस्थान नहीं है। एक भगवान् महावीर को जिस परिस्थिति का सामना करना सामान्य मनुष्य ही अपना चरम विकास करके आम जनता के लिए पड़ा, उसका संक्षिप्त कथन आवश्यक है। धार्मिक अनुष्ठान ब्राह्मणों ही नहीं किन्तु यदि किसी देव का अस्तित्व हो तो उसके लिए भी के हाथों में थे। मनुष्य और देवों का सीधा सम्बन्ध हो नहीं सकता पूज्य बन जाता है। इसीलिए इन्द्रादि देवों का स्थान श्रमण-संस्कृति था, जब तक पुरोहित मदद में न आये। एक सहायक के तौर पर यदि में पूजक का है, पूज्य का नही। भारतवर्ष में राम और कृष्ण जैसे वे आते तो उसमें आपत्ति की कोई बात न थी, किन्तु अपने निहित मनुष्य की पूजा ब्राह्मण संस्कृति में होने तो लगी, किन्तु उन्होंने उन्हें स्वार्थों की रक्षा के लिए प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान में उनकी मध्यस्थता केवल मनुष्य, शुद्ध मनुष्य न रहने दिया। उन्हें मुक्त ईश्वर के साथ अनिवार्य कर दी गई थी। अतएव एक ओर धार्मिक अनुष्ठानों में जोड़ दिया, ईश्वर का अवतार मान लिया। किन्तु श्रमण-संस्कृति के अत्यन्त जटिलता कर दी गई थी कि जिससे उनके बिना काम ही न बुद्ध और महावीर पूर्ण पुरुष या केवल मनुष्य ही रहे। उनको चले और दूसरी ओर अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए अनुष्ठान नित्यबद्ध नित्यमुक्तरूप ईश्वर कभी नहीं कहा गया।
विपुल सामग्री से सम्पन्न होने वाले बना दिये गये थे जिससे उनकी
काफी अर्थप्राप्ति भी हो जाय। ये अनुष्ठान ब्राह्मणों के सिवाय और अवतारवाद का निषेध :
कोई करा न सकता था। अतएव उन लोगों में जात्यभिमान की मात्रा ___ एक सामान्य मनुष्य ही जब अपने कर्मानुसार अवतार लेता भी बढ़ गई थी। मनुष्यजाति की समानता और एकता के स्थान पर है तब
ऊँच-नीच-भावना के आधार पर जातिबद का भूत खड़ा कर दिया यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
गया था और समाज के एक अंग अर्थात् शूद्र को धार्मिक आदि सभी अभ्युत्थनमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
लाभों से वंचित कर दिया गया था। जैसे सिद्धान्त को अवकाश नहीं रह जाता। संसार कभी उच्च जाति ने अपने गौर वर्ण की रक्षा के लिए स्त्रियों की स्वर्ग हुआ नहीं और होगा भी नहीं। इसमें तो सदाकाल धर्मोद्धारक स्वतन्त्रता छीन ली थी, उनकों धार्मिको अनुष्ठान की स्वतन्त्रता न की आवश्यकता है। सुधारक के लिए, क्रांति के ध्वजाधारी के लिये, थी। अपने पति की सहचारिणी के रूप में ही धार्मिक क्षेत्र में उनको इस संसार में हमेशा अवकाश है। समकालीन समाज को उस सुधरक स्थान था। गणराज्यों के स्थान पर व्यक्तिगत स्वार्थों ने आगे आकर या क्रान्तिकारी की उतनी पहचान नहीं होती जितनी आनेवाली पीढ़ी वैयक्तिक राज्य जमाने शुरू किये थे और इस कारण राज्यों में परस्पर को। जब तक वह जीवित रहता है उसके भी काफी विरोधी रहते हैं। शंका का वतावरण फैला था। कालबल ही उन्हें भगवान बुद्ध या तीर्थंकर बनाता है। मतलब यह कि
धर्म या धार्मिक अनुष्ठानों का अर्थ इतना ही था कि इस प्रत्येक महापुरुष को अपनी समकालीन परिस्थितियों की बुराइयों से संसार में जितना और जैसा सुख है उससे अधिक इस जन्म में तथा लड़ना पड़ता है, क्रान्ति करनी पड़ती है।
मृत्यु के बाद मिले। धार्मिक साधनों में मुख्य यज्ञ था, जिसमें वेदमन्त्र श्रमणसंस्कृति का मन्तव्य है कि जो भी त्याग और तपस्या के पाठ के द्वारा अत्यधिक हिंसा होती थी। इसकी भाषा संस्कृत होने के मार्ग पर चलकर अपने आत्म-विकास की परकाष्ठा पर पहुँचता के कारण लोकभाषा प्राकृत का अनादर हुआ। वेदमन्त्रों में ऋषियों ने है, वह पूर्ण बनता है। भगवान् महावीर और बुद्ध के समकालीन नाना प्रकार के देवताओं की स्तुति की है, प्रार्थना की है और अपनी अनेक पूर्ण पुरुष हुए हैं, किन्तु आज उनकी कोई प्रसिद्धि नहीं आशा-निराशा व्यक्त की हैं। इन्हीं मन्त्रों के आधार पर यज्ञों की सष्टि जितनी उन दोनों महापुरुषों की है कारण यही है कि दूसरों ने अपनी हुई है। अतएव मोक्ष या निर्वाण की, आत्यन्तिक सुख की, पुनर्जन्म पूर्णता में ही कृत कृत्यता का अनुभव किया और उनको समकालीन के चक्र को काटने की बात को उसमें अवकाश नहीं। धर्म, अर्थ और समाज और राष्ट्र के उत्थान में उतनी सफलता न मिली, जितनी इन काम, इन तीन पुरुषार्थों की सिद्धि के आसपास ही धार्मिक अनुष्ठानों दो महापुरुषों को मिली। स्वयं वे और उनके शिष्यों ने चारों ओर की सष्टि थी। पादविहार करके जनता को स्वतन्त्रता का सन्देश सुनाया और आन्तर इस परिस्थति का सामना भगवान् महावीर से भी पहले और बाह्य बन्धनों से अनेकों को मुक्त किया।
शुरू हो गया था, जिसका आभास हमें आरण्यों और प्राचीन उपनिषदों
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