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________________ ९२ - था। आचारांग में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि जो आत्मा की पुनर्जन्म की अवधारणा को स्वीकार करता है वही आत्मवादी है, लोकवादी है और कर्मवादी है। इस प्रकार आचारांग की दृष्टि में पुनर्जन्म की अवधारणा के स्पष्ट तीन फलित हैं आत्मवाद, लोकवाद और कर्मवाद । पुनः कर्मवाद भी आत्मा और संसार की सत्ता को स्वीकार किये बिना सम्भव नहीं है। अतः कर्मवाद के लिए आत्मा और संसार का अस्तित्व अनिवार्य है। दूसरे शब्दों में आचारांग के काल में कर्मवाद, पुनर्जन्म की अवधारणा के साथ संयोजित कर लिया गया था। आचारांग की एक विशेषता यह भी परिलक्षित होती है कि वह कर्म को हिंसा या आरम्भ के साथ संयोजित करता है। उसकी दृष्टि में कर्म या क्रियायें हिंसा के साथ जुड़ी हुई हैं और वे संसार के परिभ्रमण का कारण हैं। इसीलिए उसमें यह कहा गया है कि जो क्रिया (आरम्भ) के स्वरूप को नहीं जानता है वह संसार की विविध जीवयोनियों में परिभ्रमण करता है किन्तु जो कर्म या हिंसा के स्वरूप को जान लेता है वह परिज्ञातकर्मा मुनि सांसारिक जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठता है। इस कथन का स्पष्ट तात्पर्य है कि कर्म या क्रिया बन्धन का कारण है। कर्म या क्रिया से आसव होता है और वह आसव बन्धन का कारण बनता है । इसीलिए आचारांग जो भी सांसारिक विविधतायें हैं वे कर्म से उत्पन्न होती है। आचारांग में अष्टकर्म प्रकृतियों का स्पष्ट उल्लेख नहीं है । कर्म की शुभाशुभता के आधार को लेकर भी आचारांग में स्पष्ट रूप से कोई विस्तृत विवेचन उपलब्ध नहीं होता, किन्तु आचारांगकार कर्म और अकर्म तथा पापकर्म और पुण्य की चर्चा अवश्य करता है। आचारांग में अकम्मराय" निक्कमदंसी" शब्दों का प्रयोग यह बताता है कि आचारांगकार के समक्ष यह अवधारणा स्पष्ट रूप से आ गयी थी बाह्य स्वरूप के स्थान पर कर्त्ता के मनोभावों को प्रधानता देता है। इस प्रकार आचारांग कर्मबन्ध और कर्म-निर्जरा में घटना के कि सभी कर्म बन्धक नहीं होते हैं। पुण्य (शुभ) और पाप (अशुभ) कर्म के साथ-साथ अकर्म की यह अवधारणा हमें गीता में भी उपलब्ध होती है । जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७ चाहे आचारांग में कर्म प्रकृतियों की चर्चा न हो परन्तु कर्म शरीर की चर्चा है - 'धुणे कम्मसरीरगं' १२ कहकर दो तथ्यों की ओर संकेत किया गया है - एक तो यह कि कर्म से या कर्मवर्गणा के पुद्गलों से शरीर की रचना होती है उस शरीर को तप आदि के माध्यम से धुनना सम्भव है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचारांग में कर्म की पौद्गलिकता, कर्मपुद्गलों का आस्रव और उसका आत्मा के लिए बन्धन कारक होना -- ये अवधारणायें स्पष्ट रूप से अस्तित्व में आ गयी थीं। इसके साथ ही कर्म से विमुक्ति के लिए संवर और निर्जरा की अवधारणाएं स्पष्ट रूप से उपस्थित थीं। दूसरे शब्दों में आचारांग में कर्म, कर्मबन्ध, कर्म आस्रव-कर्म- निर्जरा और ये शब्द प्राप्त होते हैं। कर्मबन्ध के कारण के रूप में आचारांग में मोह, हिंसा १३ और राग-द्वेष की चर्चा उपलब्ध होती है। उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मोह के कारण ही प्राणी गर्भ और मरण को प्राप्त होता है । १४ जो कर्म मोह और राग-द्वेष से निःसृत नहीं हैं वे कर्म भी यदि हिंसा या Jain Education International परपीड़ा के साथ जुड़े हुए हैं तो भी उनसे बन्ध होता ही है। १५ आचारांग में कहा गया है कि गुणसमितिवान अप्रमादी मुनि के शरीर का संस्पर्श पाकर भी कुछ प्राणी परिताप प्राप्त करते हैं।' पाकर भी कुछ प्राणी परिताप प्राप्त करते हैं। मुनि के इस प्रकार के कर्म द्वारा उसे इस जन्म में वेदन करने योग्य कर्म का बन्ध होता है। इसका तात्पर्य यह है कि आचारांग की दृष्टि में राग-द्वेष और प्रमाद की अनुपस्थिति में भी यदि हिंसा की घटना घटित होती है तो उससे कर्म बन्ध तो होता ही है। इसका तात्पर्य यह है कि ईर्यापथिक कर्म को जो अवधारणा विकसित हुई है उसके भी मूलबीज आचारांग में उपस्थित हैं । फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि बन्धन के मिध्यात्व आदि पाँच कारणों की चर्चा, अष्टकर्म प्रकृतियों की चर्चा, कर्म की दस अवस्थाओं की चर्चा आचारांग के काल तक अनुपस्थित रही होगी। आचारांग में कर्मसिद्धान्त के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण तथ्य यह उपलब्ध होता है कि एक ओर आचारांगकार किसी निमित्त से होने वाली हिंसा की घटना से ही अप्रमत्त मुनि को इस जन्म में वेदनीय कर्म का बन्ध मानता है किन्तु वह दूसरी ओर इस सिद्धान्त का स्पष्ट रूप से प्रतिपादन करता है कि बाह्य घटनाओं का अधिक मूल्य नहीं है। वह स्पष्ट रूप से यह कहता है कि 'जो आस्रव हैं वे ही परिश्रव हैं, अर्थात् कर्म निर्जरा के रूप में परिणत जो परिश्रव अर्थात् कर्म निर्जरा के हेतु हैं वही आस्रव के हेतु बन जाते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि कौन सा कर्म आस्रव के रूप में और कौन सा कर्म परिश्रव के रूप में रूपान्तरित होगा इसका आधार कर्म का बाहय पक्ष न होकर कर्त्ता की मनोवृत्ति ही होगी । सूत्रकृतांग की कर्म सम्बन्धी अवधारणा आचारांग की अपेक्षा सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को विद्वानों ने किंचित् परवर्तीीं माना है। कर्मसिद्धान्त की दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि आचारांग की अपेक्षा सूत्रकृतांग में कर्म सम्बन्धी अवधारणाओं का क्रमिक विकास हुआ है। वह कहता है कि प्राणी इस संसार में स्वकृत कर्मों के फल का भोग किये बिना उनसे मुक्त नहीं हो सकता है। १७ इस सन्दर्भ में सूत्रकृतांग की यह स्पष्ट मान्यता है कि जो व्यक्ति पूर्व में जैसे कर्म करता है उसी के अनुसार वह बाद में फल प्राप्त करता है । १८ व्यक्ति का जैसा कर्म होगा वैसा ही उसे फल प्राप्त होगा । सूत्रकृतांग में स्पष्ट रूप से इस बात का भी प्रतिपादन है कि व्यक्ति अपने ही किये कर्मों का फल भोगता है । १९ व्यक्ति के सुख-दुःख के कारण उसके स्वकृत कर्म हैं अन्य व्यक्ति या परकृत कर्म नहीं ।" कर्मबन्ध के कारणों की चर्चा के रूप में सूत्रकृतांग में हमें दो महत्त्वपूर्ण उल्लेख प्राप्त होते हैं। सूत्रकृतांग के प्रारम्भ में परिग्रह या आसक्ति को ही हिंसा या दुष्कर्म का एकमात्र कारण माना गया है। २१ आगे चलकर प्रथम अध्ययन के द्वितीय उद्देशक २२ में यह कहकर कि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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