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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ मृदंग, वेणु, वीणा आदि तत, वितत एवं सुषिर वाद्यों का उल्लेख हुआ प्रदर्शित की थी। कपिल मुनि ने ध्रुवपद गाकर पांच तस्करों से स्तेय है।१२ दशाश्रुतस्कन्ध में कहा गया है कि भोगकुल और उग्रकुल के कृत्य छुड़ा कर उन्हें श्रमण दीक्षा प्रदान की थी। चित्र और संभूत नामक राजकुमार नाट्य, गीतवादिंत्र, ताल, त्रुटित, घन मृदंग आदि वाद्यों से मातंग पुत्र तिसरय और वेण बजाते हुये नगर से निकलते थे तो उनके युक्त थे । कल्पसूत्र की टीका में तीन प्रकार के ढोल-पणव, मुरज और गायन वादन से नगर के लोग मोहित हो जाते थे ।१६ मृदंग का उल्लेख हुआ है । अनुयोगद्वार के टीकाकार मलधारी हेमचन्द्र आवश्यकचूर्णि से ज्ञात होता है कि सिन्धु सौवीर का राजा ने गोमुखी और काहल का उल्लेख किया है भी कहा जाता था। इनके उदयन संगीत से मदोन्मत हाथियों को वश में कर लेता था । जब वह अतिरिक्त आडंबर और पटह नामक ढोल का भी उल्लेख हुआ है। वीणा बजाता था तो उसकी महिषी सरसों के ढेर पर नृत्य करती थीं। राजप्रश्नीय सूत्र के टीकाकार ने शंख, श्रृंग, शखिका, खरमुखी, पेया, वसुदेवहिंडी में उल्लेख आया है कि वसुदेव ने तुम्बवीणा और कंसताल पिरिपिरिका, पणव, भंभा, होरम्भ, भेरी, झालर, दुन्दुभि, मुरज, मृदंग, के साथ जो लयबद्ध संगीत प्रस्तुत किया था, वह षडज ग्राम की मूर्छना नन्दी मृदंग, आलिंग, कुस्तुंबा गोमुखी, मादला, वीणा, विपत्ती, वल्लकी, से युक्त, छ: दोषों से रहित, तीन स्थानों से शुद्ध आचरण वाला आठ षडभ्रामरी वीणा, भ्रामरी वीणा, वहवीसा, पिरवादिनी वीणा, सुघोषाघंटा, गुणों और रसों से युक्त ताल के अनुरूप था। नन्दीघंटा, नंदीघोषधंटा, सौ तार वीणा, काछवीवीणा, चित्रवीणा, आभोट, सार्वजनिक स्थानों पर संगीत उत्सव पूरी रात चलते रहते थे, झंझा, नकुल, तूण, तंबुवीणा, मुकुन्द, हुडुक्क, विचिक्की, करटी, जिसमें कला प्रेमी संगीत का रसास्वादन करते थे। वसुदवेहिंडी में एक डिड़म, किणिक, कडंब, दर्दर, दर्दरिका, कलशिका, भडक्क, तल, ऐसी मांतग कन्या का उल्लेख हुआ है जो वनमहोत्सव के समय ताल, कांस्यताल, रिंगरिसिका, लत्तिका, मकरिका, शिशुमारिका वाली, शास्त्रीय पद्धति के अनुकूल नेत्रों का संचार, हाथ की मुद्राओं का प्रदर्शन, वेणु, परिली, बद्धक आदि का उल्लेख किया है ।१३ देवगढ़ खजुराहो, ताल से पैरों की थिरकन आदि के अभिनय से युक्त नृत्य करती थी। दिलवाड़ा, विदिशा, मथुरा आदि से मिले मूर्तियों के पुरात्व अवशेष धार्मिक महोत्सवों और मनोरजनार्थ संगीत गोष्ठियों में पदनिक्षेप, भौहों इनकी पुष्टि करते हैं।
और नेत्रों का संचार, अभिनय, हाव-भाव, ताल-लय, अंग-प्रत्यंग एवं निवृत्ति प्रधान जैन परंपरा में भी संगीत को वैराग्य भावना और स्तनों के कंपन आदि मुद्राओं पर विशेष ध्यान दिया जाता था । आध्यात्मिक पवित्रता का माध्यम माना गया था । आदि तीर्थंकर प्रतियोगितायें आयोजित की जाती थी, प्राश्निक नियुक्त किये जाते थे ऋषभदेव के वैराग्य को प्रदीप्त करने में महत्त्वपूर्ण निमित्त कारण विजेता को राजकीय सम्मान से पुरस्कृत किया जाता था। नीलाजंना का नृत्य करते हुए देहपात हो जाना था। नीलजंना की कथा चौदहवीं शती के जैन आचार्यों द्वारा रचित संगीत के ग्रंथ से स्पष्ट होता है कि जैनों ने किस प्रकार इन कृत्यात्मक कलाओं को मिलते हैं। आचार्य पार्श्वदेव ने अपने ग्रंथ 'संगीत समयासार' में नाद, 'त्याग और वैराग्य के साथ जोड़ दिया था। सागारधर्मामृत में आत्मतत्त्व राग, वाद्य, ताल, प्रस्तार, प्रबन्ध अभिनय, नृत्य आदि विभिन्न विषयों एवं आत्मशोधन की प्रक्रिया हेतु जिन भक्ति के लिये संगीत को सर्वश्रेष्ठ पर प्रकाश आता है। सुधाकलश ने 'संगीतोपनिषद्सारोद्वार' गीत, ताल, साधन कहा गया है । संगीत के योग से भक्ति में तीव्रता आती है, राग, चर्तुविद्य वाद्य एवं नृत्यांग, उपांग, प्रत्यांग आदि नृत्य पद्धतियों का लालित्य में वृद्धि होती है तथा हृदय द्रवित होकर तदाकार वृत्ति में स्थिर उल्लेख किया है।२९ उपयुक्त उल्लेखों से प्रतीत होता है कि जैन ग्रंथ हो जाता है । पंचाशक में आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि जब किसी अनेक दुर्लभ संगीतिक उल्लेखों से भरे पड़े हैं जो संगीत शास्त्र के चैत्यालय या नये मन्दिर का निर्माण हो तो उसमें भक्तिपूर्वक संगीत नृत्य शोधार्थियों के लिये बड़े महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं । इस लेख में उदाहरण गायन का आयोजन करके प्रभु भक्ति करनी चाहिये।
स्वरुप कुछ तथ्यों का उदघाटन करना शक्य हो सका है । आवश्यकता जैन पंरपरा के धार्मिक जीवन में भक्ति मार्ग का विकास ही इन है, एक पृथक सुनियोजित सर्वेक्षण की। कृत्यात्मक कलाओं का आधार बना । देवगण तीर्थंकरों के समय भक्तिवश विभिन्न मंगलमय नृत्य एवं नाटक प्रस्तुत करते थे । राजप्रश्नीय
संदर्भ सूत्र में सूर्याभदेव द्वारा महावीर के समक्ष संगीत मय नाटक करने की कथा मिलती है । सूर्याभदेव ने देव-देवियों सहित स्वस्तिक, श्रीवत्स, १.जिनसेन, आदि पुराण, १६/१७९-१२३ गन्धावर्त, वर्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य, आवर्त, प्रत्यावर्त श्रेणी, संघदास गणि, वसुदेवहिंडी, पृ० ५०२ प्रश्रेणी, सौवस्तिक पुष्यमानव आदि ३२ प्रकार की नाटक विधियां २. समवायांग, सूत्र ७२ की टीका प्रस्तुत की थी५ । उत्तराध्ययनसूत्र की टीका से ज्ञात होता है कि ब्रह्मदत्त ३. संगीतोपनिषद्सारोद्धार उद्धृत जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, चक्रवर्ती के समक्ष एक नट ने 'मधुकरी गीत' नामक नाट्य विधि भाग ५, पृ० १५६-१५७ ।
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