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________________ 'जैन वाङ्मय का संगीत पक्ष' डॉ० कमल जैन संगीत हमारी अन्तरात्मा के परिष्कार एवं उसके आध्यात्मीकरण आयोजन करती रहती थी। संगीत के सात स्वरों की उत्पत्ति के विषय का सहज एवं सशक्त माध्यम है। यह चेतना को उस लोक में प्रतिष्ठित में कई प्रकार के उल्लेख प्राप्त होते हैं । स्थानांगसूत्र में संगीत के सात करता है जहां सौन्दर्य बोध आध्यात्मिक बोध की अभिव्यंजना बन जाता स्वरों की उत्पत्ति नाभि से मानी गई है। कीर्तिकेयानुप्रेक्षा में सप्त स्वरों है। संगीत प्राकृतिक आनन्द भाव का नैसर्गिक उच्छवास है, गगनचारी का सम्बन्ध शारीरिक अवयवों से माना गया है । कण्ठ से षडज, शिर विहंगो के मधुर गीत, झरनों का कल-कल निनाद, मधुर पवन के झोकों से ऋषभ, नासिका से गांधार, हृदय से मध्यम, मुख से पंचम, तालु से झूमते पेड़ पौधों का संगीत किसको उल्लासित नहीं करता। संगीत से धैवत और सकल शरीर से धैवत । स्थानांगसूत्र में पशु-पक्षियों से का मुख्य उद्देश्य लोकचित्तरंजन है, पुत्र जन्म हो या जीवन का कोई स्वरज्ञान, मात्राओं एवं ध्वनियों की सम्बद्धता बताई गई है । मयूर से संस्कार, युद्ध हो या शांति, पूजा हो या मंगल यात्रा हर अवसर पर षड़ज, कुक्कुट से ऋषभ, हंस से गांधार, भेड़ से मध्यम, कोयल से संगीत की स्वर लहरियां गूंजती रहती हैं। संगीत की मधुर झंकार से पंचम, क्रौंच और सारस से धैवत तथा हाथी से निषाद स्वर की उत्पत्ति मानव तो क्या पशु-पक्षी भी मोहित हो जाते हैं, वे भी अपने क्रूर स्वभाव हुई । सात स्वरों के तीन ग्राम कहे गये हैं, षड़ज ग्राम, मध्यम ग्राम को छोड़कर अहिंसक बन जाते हैं। तथा गान्धार ग्राम । षड़जग्राम की आरोह-अवरोह रूप सात मूर्च्छनायें जैन संस्कृति और वाङ्मय में प्राचीन काल से ही संगीत का कहीं गई है, भंगी, पौरवीया, हरित , रजनी, सारकान्ता, सारसी, शुद्ध महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । जैन पंरपरा इसे अनादि नित्य मानती है । पुरूषों षड़जा । मध्यम ग्राम की सात मूर्च्छनाओं में उतरभद्रा, रजनी, उत्तरा, की ७२ कलाओं और नारी की ६४ कलाओं में संगीत को श्रेष्ठ माना उत्तरायता, अश्वक्रान्ता, सौवीरा और अभिरुद्रगता। गांधार ग्राम की सात जाता है । जैन पौराणिक मान्यतानुसार आदि तीर्थंकर ऋषभदेव ने अपने मूर्छनाओं में नंदीक्षुद्रिका, पूरका, शुद्धा, गान्धारा, उत्तर गांधारा सुठुत पुत्र वृषभसेन को १०० अध्यायों वाले संगीत शास्त्र में गीत, वाद्य तथा आयामा एवं उत्तरायता का उल्लेख हुआ है । गीत के छह दोष, आठ गान्धर्व विद्या का उपदेश दिया था। जैन साहित्य में अनेक स्थलों पर गुण, तीन वृत्त और दो भणतियां होती है जो बुद्धिमान व्यक्ति इन्हें जानता विविध दृष्टियों से गीतों के उल्लेख मिलते हैं कहीं कला की दृष्टि से, है वह रंगमंच पर इन्हें गा सकता है । गीत प्राकृत और संस्कृत दोनों कही प्रतिपादन की दृष्टि से और कहीं विरक्ति की विवेचना के रूप में। भाषाओं में गाये जाते है । अनुयोगद्वार में संगीत विषयक विस्तृत समवायाङ्ग सूत्र की टीका में आचार्य अभयदेव ने गान्धर्व कला के ज्ञान- सामग्री मिलती है उसमें स्वर, गीत, वाद्य, मूर्च्छनाओं के नामों का क्रम विज्ञान को गीत कहा है । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की टीका में आचार्य विमल भरत के नाट्यशास्त्र के अनुरुप नहीं है। अभिधानराजेन्द्रकोष में गीत, गिरि ने पद, स्वर एवं ताल बद्ध गान्धर्व को गीत कहा है। संगीतोपनिषद्- नृत्य, वाद्य एवं नाट्य का विस्तार किया है। गीये शब्द के अर्न्तगत सारोद्वार में कहा गया है कि तूर्य वाद्य और नाटक की उत्पत्ति भरत गीत तथा संगीत की विस्तृत परिभाषा दी है जो नाट्यशास्त्र, संगीतसमयासार चक्रवर्ती की नवनिधियों में से अंतिम निधि शंख से हुई थी। मध्य तथा अन्य साहित्यिक उल्लेखों के अनुकूल है। कालीन जैनकथा नागपंचमी में संगीत का महत्त्व बताते हुये कहा गया जैन साहित्य में वाद्यों को तत, वितत, धन तथा सुषिर इन है कि सुन्दर युवतियों के हावभाव से अथवा संगीत के मधुर आलाप चार भागों में विभक्त किया गया है । निशीथचूर्णि में तत के अर्न्तगत से जिसका हृदय मुग्ध नहीं होता वह या तो पशु है या देवता अर्थात् वीणा, विपञ्ची, वद्धिसग, तुणय, तुम्बवणिया, ठकुण और जोडय आदि संगीत व रमणियों के हावभाव में मानव को रसासिक्त करने की शक्ति वाद्यों का उल्लेख है । चर्म से आबद्ध वाद्य वितत कहे गये हैं, इनमें ___मृदंग, दर्दुर, भेरी, डिंडम आदि हैं । कांस्य आदि धातुओं से बने वाद्य जैन हरिवंशपुराण में किन्नर, गांधर्व, तंबरू, नारद तथा धन कहे जाते हैं। करताल, कांस्यवन, नयभटा, सुक्तिका, कण्ठिका, विश्वास को संगीत के देवता के रूप में मान्यता दी गई है। वसुदेवहिंडी पटवाद्य, पट्टाघोष, धर्धर, मंजरी, कर्तरी आदि की गणना इसमें होती से भी ज्ञात होता है कि संगीत शिक्षा आरम्भ करने से पहले तुम्बुरू और थी। फूंक कर बजाये जाने वाले वाद्य सुषिर कहे जाते थे।१० समराइच्चकहा नारद की पूजा की जाती थी। हरिभद्र के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि में वीणा, शृंग, भेरी, तूर्य, शंख, झाल, दुंदभी, पटह आदि वाद्यों का गान्धर्व संगीत कला में निपुण होते थे । संगीत को वह अपनी उल्लेख हुआ है। वसुदेवहिंडी में पडह, शंख, भेरी दुंदभी, परिली, आजीविका का साधन भी बनाते थे। गान्धर्व स्त्रियां संगीत सामारोहों का पर्वक, पल्लीसग, काहल, वन्तग खरमुखी मुंकद, भल्लरी आलिंग, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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