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________________ २ २४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ कृश दोनों हो। सन्दर्भ जैनों के न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान में शरीर के अधोभाग १. तत्रोधिोमध्येष समप्रविभागेन शरीरावयवसन्निवेशव्यवस्थापन को कृश और ऊपरी भाग को पुष्ट माना गया है और स्वाति संस्थान कुशलशिल्पिनिर्वतितसमस्थितिचक्रवत अवस्थानकरं समचतुरस्र में भी शरीर के अधोभाग को पुष्ट और ऊपरी भाग को कृश माना संस्थाननाम राजवार्तिक, संपा० महेन्द्र कुमार जैन, प्रकाशक गया है। अत: दोनों ही शेल्डन के लम्बाकार व्यक्तित्व से भिन्न हैं। भारतीय ज्ञानपीठ, काशी१९५३, पृ० ५७६। हुंडक और कुब्जक संस्थानों की चर्चा हमें आधुनिक नाभेरुपरिष्टाद् भूयसो देहसन्निवेशष्याधस्ताच्चाल्पीयसो जनकं मनोवैज्ञानिक शेल्डन द्वारा की गयी वर्गीकरण में नहीं प्राप्त होती है। ' न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननाम। वही। इसका कारण यह है कि आधुनिक मनोवैज्ञानिक साधारणतया सामान्य व्यक्तियों को ध्यान में रखकर, उनका अध्ययन तथा वर्गीकरण प्रस्तुत पृष्ठदेशभाविबहुपुद्गलप्रचयविशेषलक्षणस्य निर्वर्तकं कुब्जसंस्था करते हैं। अगर इन व्यक्तियों के भी स्वभावों का अध्ययन मनोवैज्ञानिक ननाम् राजवार्तिक, संपा० महेन्द्रकुमार जैन, प्रका०. भारतीय दृष्टि से किया जाय तो बहुत कुछ सत्य प्राप्त हो सकता है। ज्ञानपीठ काशी १९५३, पृ. ५७७) जहाँ तक 'अष्टावक्र ऋषि' के शारीरिक बनावट और ४. सर्वाङ्गोपाङ्हस्वव्यवस्थाविशेषकारणं वामनसंस्थाननाम वही। बौद्धिक सामर्थ्य का प्रश्न है, उन्हें तो अपवाद ही मानना होगा। ५., सर्वाङ्गोपाङ्गानां हुण्डसंस्थितत्वात्हुण्डसंस्थाननाम। वही। शरीर-संरचना मानव व्यक्तित्व के लिए एक महत्वपूर्ण ६. Kretschmer, Physique and Character, New York तथ्य है। जैन परम्परा के साथ-साथ आधुनिक मनोवैज्ञानिक भी मानते 1925. हैं कि शारीरिक संरचना का प्रभाव व्यक्ति के सामाजिक जीवन पर भी उद्धत-व्यक्तित्वमनोविज्ञान-सीताराम जायसवाल, उ०प्र० हिन्दी पड़ता है। यद्यपि जैनधर्म में आध्यात्मिक दृष्टि से संस्थान को विशेष ग्रंथ अकादमी लखनऊ १९७४, पृ०१६४। महत्त्व नहीं दिया गया है, क्योंकि उनके अनुसार छहों संस्थानों के व्यक्ति निर्वाण (मुक्ति) प्राप्त कर सकते हैं। शारीरिक संरचना, व्यक्ति ७. W. H. Sheldon, The Varieties of Human Physique. के आध्यात्मिक विकास में तो बाधक नहीं किन्तु व्यावहारिक जीवन उद्धृत- वही, पृ०१६५। का महत्त्वपूर्ण तथ्य है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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