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________________ आत्मिक यज्ञः एक अनुचिन्तन जैन, बौद्ध एवं ब्राह्मण ग्रन्थों के परिशीलन से ज्ञात होता थे। उनके नाम और कार्य निम्न प्रकार से थेहै कि जिस समय भगवान् महावीर और बुद्ध ने जन्म लिया था उस समय वेदविहित हिंसा प्रधान यज्ञों का प्रचलन धर्म के रूप में इतना व्यापक था कि प्रत्येक आवश्यक कार्यों की सफलता के लिये इन यज्ञों को करना अनिवार्य था। जैसे पुत्रप्राप्ति के लिए धन की प्राप्ति के लिए, युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए आदि। इस युग को कर्मकाण्डी ब्राह्मण युग कहा जाता है जिसमें पौरोहित्यवाद ने जोर पकड़ा तथा पुरोहित (पुजारी) देवों के तुल्य समझे जाने लगे। वेदों के नित्य, अपौरुषेय एवं ईश्वरप्रदत्त मानने की प्रवृत्ति का भी उदय इसी काल में हुआ। परम पुरुष के निःश्वास के रूप में भी इनकी प्रसिद्धि हुई। जो इनका ज्ञाता होता था वही पण्डित कहलाता था तथा समाज में आदर की दृष्टि से देखा जाता था । यज्ञान्न प्राप्त करने का भी अधिकारी वेदविद् ब्राह्मण ही समझा जाता था। ब्राह्मण लोग यज्ञों में निरपराध एवं मूक पशुओं का हनन व हवन यह कह कर किया करते थे कि विहित हिंसा, हिंसा नहीं कहलाती है वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति तथा इसके संदर्भ में औषधि, पशु, वृक्ष, तिर्यञ्च और पक्षी यज्ञ में होम की विधासे मृत्यु को प्राप्त होकर स्वर्ग को प्राप्त करते हैं"। पशु आदि को सृष्टि यज्ञ में हवन करने के लिए ही है। एक तरफ गाय में ३३ करोड़ देवताओं का निवास मानते थे और दूसरी तरफ धर्म के नाम पर यज्ञमण्डप में उसके करुणक्रन्दन करने पर भी हिंसा किया करते थे। ज्ञान-पुञ्जरूप ऋग्वेद में यज्ञ के यथार्थ रूप का दर्शन देवों की आराधना के रूप में होता है परन्तु कालान्तर में ब्राह्मण ग्रन्थों में यज्ञ को एक जादू-टोना का रूप प्राप्त हुआ जो यज्ञ प्रक्रिया की एक अवनति थी तथा वेदविहित धर्म को कलुषित करना था। किस तरह वेदविहित धर्म को इन धूर्त मांस लोलुप वेद के व्याख्याकारों ने अश्वमेध, राजसूय आदि यज्ञों में धर्म नाम पर अगणित निरपराध प्राणियों की हिंसा द्वारा, कलुषित किया तथा स्वयं पतित होकर दूसरों को भी पतिताचार में प्रवृत्त कराया, इसका वर्णन हम आगे करेंगे। सर्वप्रथम हम यह जान लें कि इन ब्राह्मण ग्रन्थों में, जिनमें यज्ञ योग का ही सविस्तार वर्णन है, किस तरह यज्ञ करने की प्रथा थी तथा यज्ञ में कौन-कौन से उपकरण होते थे ? यज्ञ के अवसर पर एक यज्ञमण्डप बनवाया जाता था जिसके बीच में यज्ञ वेदिका होती थी जहाँ प्रज्वलित अग्नि में आहुतियाँ दी जाती थीं। इन यज्ञों का सम्पादन चार विशिष्ट व्यक्ति ऋत्विज मिलकर करते थे जो चारों वेदों के विशिष्ट ज्ञाता कहलाते Jain Education International प्रो० डॉ० सुदर्शनलाल जैन (१) होता ऋत्विज यह यज्ञ के समय विशिष्ट मंत्रों द्वारा देवता का आह्वान करता था। उन विशिष्ट मंत्रों का संकलन ऋग्वेद में होने से यह ऋग्वेद का पूर्णज्ञाता होता था। (२) अध्वर्युऋत्विज - यज्ञों का विधिवत् सम्पादन करना इसका कार्य है। इस विषय के ज्ञान के लिए आवश्यक मंत्रों का संकलन यजुर्वेद संहिता में होने से, यह ऋत्विज यजुर्वेद का पूर्णज्ञाता होता था। (३) उद्गाता ऋत्विज इसका कार्य है कि उच्च एवं मधुरस्वर से ऋचाओं का गान करे। सामवेद में ऐसी ऋचाओं का संकलन है अतः यह ऋत्विज सामवेद का पूर्णज्ञाता होता था। (४) ब्रह्मा ऋत्विज यह सम्पूर्ण यज्ञ का निरीक्षण करता था जिससे यज्ञ में किसी प्रकार की त्रुटि न रहे । अतः इसे समग्र वेदों का ज्ञान होना जरूरी था। अथर्ववेद का संकलन इसी ऋत्विज के निमित्त है क्योंकि वेद तीन ही हैं 'त्रयी वेदा' १० अतः ऋत्विज मुख्यरूप से अथर्ववेद का ज्ञाता होता था। 'यज्ञ' शब्द 'यज्' पूजार्थक धातु से निष्पन्न होता है अतः 'इज्यते ऽनेनेति यशः' जिसके द्वारा हवन-पूजन किया जाय उसे यज्ञ कहते हैं। इस प्रकार यज्ञ एक प्रकार का कर्म है, कर्म चाहे शुभरूप हो या अशुभरूप हों दोनों ही संसार भ्रमण के कारण हैं तथा संसारभ्रमण दुःख का हेतु है यह सम्पूर्ण संसार चक्र यश की प्रक्रिया से ही प्रचलित है ११ । तथा हमारी जो भी क्रियाएँ हैं वे सभी एक प्रकार की यज्ञ क्रियाएँ ही हैं। परन्तु ब्राह्मण ग्रंथों में प्रचलित 'यज्ञ' शब्द एक विशिष्ट क्रिया का द्योतक है। इन यज्ञों को द्रव्य और भाव के भेद से दो भागों में विभाजित किया जाता है। द्रव्य-यज्ञ के पुनः दो मुख्य भेद हैं: श्रीतद्रव्ययज्ञ और स्मार्तद्रव्ययज्ञ । इनके स्वरूप क्रमशः निम्न प्रकार हैं " श्रीतद्रव्ययज्ञः जिनमें जंगम और स्थावर जीवों की बलि दी जाती है उन्हें श्रीतद्रव्य यज्ञ कहते हैं। जैसे अश्वमेध, वाजपेय ज्योतिष्टोम आदि। ये यज्ञ बहुत खर्चीले थे १२ अतः साधारण जनता इन को नहीं कर सकती थी। इनमें अनेक पशुओं की निर्मम हत्याएँ होती थीं। इस तरह धर्म के नाम पर हिंसा का प्रचार देखकर तत्कालीन तत्त्व - मनीषियों ने इसका घोर खण्डन किया । यद्यपि एक सुनिश्चित धर्म-परम्परा के विरुद्ध जाने का किसी का साहस न होता था परन्तु विरुद्ध विचारों को प्रकट करते हुए भी वेद को प्रमाण मानते रहे । वेद को प्रमाण मानने वाले भारतीय दर्शनों में जो परस्पर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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