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________________ १० जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ उसके स्वस्वरूप नहीं है, वे अनात्म हैं। सम्यक् ज्ञान आत्म-ज्ञान है, और ग्यारह प्रतिमाओं का पालन आता है। श्रमणाचार के अन्तर्गत किन्तु आत्मा को अनात्म के माध्यम से ही पहचाना जा सकता है। पंचमहाव्रत, रात्रिभोजन निषेध, पंचसमिति, तीन गुप्ति, दस यतिधर्म, अनात्म के स्वरूप को जानकर अनात्म से आत्म का भेद करना यही बारह अनुप्रेक्षाएं, बाईस परीषह, अट्ठावीस मूलगुण, बावन अनाचार भेद विज्ञान है और यही जैन-दर्शन में सम्यक् ज्ञान का मूल अर्थ है। आदि का विवेचन उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त भोजन, वस्त्र, आवास इस प्रकार जैन-दर्शन में सम्यग्ज्ञान आत्म-अनात्म का सम्बन्धी विधि-निषेध हैं। विवेक है। जैनों की पारिभाषिक शब्दावली में इसे भेद विज्ञान कहा जाता है। आचार्य अमृतचन्द्र सूरि के अनुसार जो कोई सिद्ध है वे इस साधनत्रय का पूर्वापर सम्बन्ध आत्म-अनात्म के विवेक या भेद विज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं और जो दर्शन, ज्ञान और चारित्र की पूर्वापरता को लेकर जैन बन्धन में हैं, वे इसके अभाव के कारण ही हैं२३। आचार्य कुन्दकुन्द विचारणा में सामान्यतया कोई विवाद नहीं है। जैन आगमों में दर्शन ने समयसार में इस भेद विज्ञान का अत्यन्त गहन विवेचन किया है की प्राथमिकता बताते हुए कहा गया है कि सम्यक् दर्शन के अभाव किन्तु विस्तार भय से यह समग्र विवेचना यहाँ सम्भव नहीं है।२४ में सम्यक् चारित्र नहीं होता। भक्तपरिज्ञा में कहा गया है कि 'दर्शन से भ्रष्ट (पतित) ही वास्तविक रूप में भ्रष्ट है, चारित्र से भ्रष्ट, भ्रष्ट नहीं सम्यक् चारित्र का अर्थ है क्योंकि जो सम्यक् दर्शन से युक्त व्यक्ति संसार में अधिक परिभ्रमण जैन परम्परा में साधना का तीसरा चरण सम्यक् चारित्र है। नहीं करता है, जबकि दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति संसार से मुक्त नहीं इसके दो रूप माने गए हैं १. व्यवहार चारित्र २. निश्चय चारित्र। होता।२५ कदाचित् चारित्र से रहित सिद्ध भी हो जावे लेकिन दर्शन आचरण का बाह्य पक्ष या आचरण के विधि-विधान व्यवहार चारित्र से रहित कभी भी मुक्ति नहीं पाता। वस्तुत: दृष्टिकोण या श्रद्धा ही कहे जाते हैं। जबकि आचरण की अन्तरात्मा निश्चय चारित्र कहीं जाती एक ऐसा तत्त्व है जो व्यक्ति के ज्ञान और आचरण को सही दिशा है। जहां तक नैतिकता के वैयक्तिक दृष्टिकोण का प्रश्न है अथवा निर्देश कर सकता है। आचार्य भद्रबाहु आचारांगनियुक्ति में कहते हैं व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का प्रश्न है, निश्चयात्मक चारित्रं ही कि सम्यक् दृष्टि से ही तप, ज्ञान और सदाचरण सफल होते हैं।२६ मूलभूत आधार है। लेकिन जहां तक सामाजिक जीवन का प्रश्न है, जहां तक ज्ञान और चारित्र का सम्बन्ध है, जैन विचारकों चारित्र का बाह्य पक्ष ही प्रमुख है। ने चारित्र को ज्ञान के बाद ही स्थान दिया है। उत्तराध्ययनसूत्र में यही निश्चय दृष्टि से चारित्र का सच्चा अर्थ समभाव या समत्व बताया गया है कि सम्यक् ज्ञान के अभाव में सदाचरण नहीं होता है। की उपलब्धि है। मानसिक या चैतसिक जीवन में समत्व की उपलब्धि- इस प्रकार जैन दर्शन में आचरण के पूर्व सम्यक् ज्ञान का होना यही चारित्र का पारमार्थिक या नैश्चयिक पक्ष है। वस्तुतः चारित्र का आवश्यक है, फिर भी वे यह स्वीकार नहीं करते हैं कि अकेला ज्ञान पक्ष आत्म-रमण की स्थिति है। नैश्चयिक चारित्र का प्रादुर्भाव केवल ही मुक्ति का साधन हो सकता है। महावीर ने ज्ञान और आचरण दोनों अप्रमत्त अवस्था में ही होता है। अप्रमत्त चेतना की अवस्था में होने से समन्वित साधना पथ का उपदेश दिया है। सूत्रकृतांग में महावीर वाले सभी कार्य शुद्ध ही माने गए हैं। चेतना में जब राग, द्वेष, कहते हैं कि 'मनुष्य चाहे वह ब्राह्यण हो, भिक्षुक हो अथवा अनेक कषाय और वासनाओं की अग्नि पूरी तरह शांत हो जाती है तभी शास्त्रों का जानकर हो यदि उसका आचरण अच्छा नहीं है तो वह सच्चे नैतिक एवम् धार्मिक जीवन का उद्भव होता है और ऐसा ही अपने कृत्य कर्मों के कारण दुःखी ही होगा'।२७ उत्तराध्ययन सूत्र में सदाचार मोक्ष का कारण होता है। साधक जब जीवन की प्रत्येक कहा गया है कि अनेक भाषाओं एवम् शास्त्रों का ज्ञान आत्मा को क्रिया के सम्पादन में आत्म-जाग्रत होता है, उसका आचरण बाह्य शरणभूत नहीं होता। दुराचरण में अनुरक्त अपने आप को पंडित आवेगों और वासनाओं से चालित नहीं होता है तभी वह सच्चे अर्थों मानने वाले लोग वस्तुत: मूर्ख ही हैं। वे केवल वचनों से ही अपने में श्चय चारित्र का पालन-कर्ता माना जाता है। यही नैश्चयिक चारित्र को आश्वासन देते हैं।२८ आवश्यकनियुक्ति में ज्ञान और आचरण के मुक्ति का सोपान कहा गया है। पारस्परिक सम्बन्ध का विवेचन अत्यन्त विस्तृत रूप से किया गया है। आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि 'आचरणविहीन अनेक शास्त्रों के व्यवहार चारित्र ज्ञाता भी संसार समुद्र से पार नहीं होते'। ज्ञान और क्रिया के व्यवहार चारित्र का सम्बन्ध आचार के नियमों के परिपालन पारस्परिक सम्बन्ध को लोक प्रसिद्ध अंध-पंगु न्याय के आधार पर से है। व्यवहारचारित्र को देशव्रती चारित्र और सर्वव्रती-चारित्र ऐसे स्पष्ट करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जिस प्रकार एक चक्र से रथ वर्गों में विभाजित किया गया है। देशव्रतीचारित्र का सम्बन्ध गृहस्थ नहीं चलता है या अकेला अंधा अथवा अकेला पंगु इच्छित साध्य उपासकों से और सर्वव्रतीचारित्र का सम्बन्ध श्रमण वर्ग से है। जैन- को नहीं पहुँचते, वैसे ही मात्र क्रिया या मात्र ज्ञान से मुक्ति नहीं परम्परा में गृहस्थाचार के अन्तर्गत अष्टमूलगुण, षट्कर्म, बारह व्रत होती, अपितु दोनों के सहयोग से ही मुक्ति होती है।२९ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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