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युद्ध और युद्धनीति : जैनाचार्यों की दृष्टि में
-इन्द्रेशचन्द्र सिंह
युद्ध और युद्ध-प्रणाली उतनी ही प्राचीन है जितनी कि होते अपितु युद्ध में संलग्न राज्यों की सेनाएं ही लड़ाई में विधिवत मानव जाति की कहानी। मानव जीवन की कहानी युद्धों से भरी पड़ी भाग लेती हैं। अत: उपर्युक्त विवेचन के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर है। भौतिक संसार में युद्ध और संघर्ष मानव जीवन के सहचर हैं। पहुँचते हैं कि युद्ध दो या दो से अधिक राज्यों अथवा राष्ट्रों की प्राचीन काल से लेकर आज तक युद्धों ने एक नये समाज, सभ्यता सेनाओं के बीच होने वाली लड़ाई है।
और संस्कृति को जन्म दिया है, लेकिन अन्त में वह नवीनतम युद्ध सामाजिक विघटन का सबसे बड़ा स्वरूप है जिसमें सभ्यता भी अपनी सुलगाई हुई अग्नि में भस्म हो गई। संघर्ष परस्पर विरोधी राष्ट्र या मानव समूह हिंसात्मक साधनों द्वारा एक विश्वव्यापी है। व्यक्ति, समाज, देश या राष्ट्र हर किसी का अस्तित्व दूसरे पर घात-प्रतिघात करते हैं। यद्यपि समय-समय पर विभिन्न शक्ति पर कायम रहता है अतः अस्तित्व की सुरक्षा के लिए युद्ध विद्वानों, दार्शनिकों, राजनीतिज्ञों आदि ने युद्ध को भिन्न-भिन्न रूपों में अपरिहार्य हो जाता है। यदि मानव जाति के उद्भव और विकास पर परिभाषित करने का प्रयास किया है। यह परिभाषाएँ उनके काल और दृष्टि डाली जाय तो विदित होगा कि यह वसुन्धरा प्रारम्भ से ही व्यवसाय को अपेक्षित न कर सकीं। वास्तव में युद्ध सदैव एक वीरभोग्या है, यहाँ कायरों और दुर्बलों के लिए कोई स्थान नहीं है। सामाजिक तथ्य रहा है, परिवर्तित समाज, धर्म, अर्थ एवं नैतिक मानव का सर्वोपरि लक्ष्य आत्मरक्षा और आत्मविश्वास ही रहा है। पद्धतियाँ परिवर्तित ही नहीं होतीं वरन् समय-समय पर पूर्णतया
प्रकृति के नियम और विधान बहुत ही सशक्त और अविचल विलुप्त हो जाया करती हैं, सैनिक पद्धतियाँ भी बदलती हैं, तथापि होते हैं। जन्म है तो मृत्यु, सर्जन है तो विनाश, विकास है तो विकार युद्ध का कभी भी विनाश नहीं होता। शान्ति स्थापित करने की पवित्र भी है। यही प्रकृति का अटल नियम है। युद्ध मानवीय भाव है और भावनाएं, युद्ध निरोधक राष्ट्रीय चेष्टाएं, नि:शस्त्रीकरण हेत की गई मानवीय भाव प्रकृति से प्रभावित होता रहता है, इसीलिए युद्ध में सन्धियाँ सभी निरन्तर युद्ध की दावानल में स्वाहा होती रही हैं। जैसेनिर्माण और विनाश दोनों निहित रहते हैं। जब तक प्रकृति है, मानव जैसे सभ्यता का विकास हुआ, वैसे-वैसे प्रत्येक शताब्दी ने महाविनाशक है तब तक युद्ध का अस्तित्व रहेगा। मानव का अन्त होने पर ही युद्ध युद्ध देखे, जो पिछले युद्धों से कहीं अधिक विनाशकारी और निर्मम का अन्त हो सकता है। वास्तव में युद्ध करना मानव का धर्म है। सिद्ध हुआ। सम्भवत: इसीलिए कतिपय प्राचीन विचारकों ने युद्ध को राजधर्म सम्राटों के युद्ध राष्ट्र के युद्ध होने लगे। विश्वमंच युद्धमाना है। यहाँ तक कि युद्ध से पराङ्मुख होना, शत्रु के सामने घुटने नाट्य से कभी भी रिक्त नहीं रहा। यदा-कदा पटाक्षेप केवल उसको टेक देना भारतीय नीति को कभी भी बर्दास्त नहीं रहा।
अधिक कर और बर्बर बनाने के लिए अवकाशमात्र सिद्ध हआ। वास्तव में भिन्न-भिन्न लोग युद्ध का पृथक्-पृथक् अर्थ युद्ध के कारणलगाते हैं, किन्तु 'युद्ध' शब्द इतना सामान्य, प्रचलित तथा दैनिक प्राचीन काल में 'वीरभोग्या वसुन्धरा' का सिद्धान्त प्रचलित जीवन से सम्बद्ध है कि शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जिसे यह था। उस युग में कीर्ति, कांचन और कामिनी ही युद्ध के प्रमुख कारण न मालूम हो कि युद्ध का अर्थ क्या है? यद्यपि युद्ध का शाब्दिक अर्थ होते थे तथा इनके मूल में विषय लालसा और कषाय की भावना लड़ना होता है लेकिन प्राविधिक विचार से युद्ध और लड़ाई में थोड़ा निहित होती थी। प्राचीन काल में सर्वाधिक युद्ध स्त्रियों के कारण लड़े अन्तर प्रतीत होता है। लड़ाई मानव-मानव के बीच सम्पन्न हो सकती गये। जैन ग्रन्थों में संकटापन्न स्त्रियों की रक्षा के लिए, उनके रूपहै, लेकिन युद्ध मानव-मानव के बीच नहीं होता। इसलिए केवल सौन्दर्य से आकृष्ट हो उन्हें प्राप्त करने के लिए अथवा स्वयंवरों के राज्यों के बीच होने वाली लड़ाई को ही 'युद्ध' की संज्ञा प्रदान कर अवसर पर युद्ध किये जाने के अनेकश: उल्लेख मिलते हैं। प्राचीन सकते हैं। 'युद्ध' अधिक समय तक चलने वाली लड़ाई को कहते हैं। जैन ग्रन्थों में सीता', द्रौपदी२, रूक्मिणी३, पद्मावति, तारा", ज्ञातव्य है कि जब दो या दो से अधिक राज्यों के बीच युद्ध होता है, कांचना, रक्त सुभद्रा, अहित्रिका', किन्नरी, सुरूपा१०, विद्युन्मती११ तो राज्यो के संपूर्ण नागरिक युद्ध की ज्वाला में कूदकर स्वाहा नहीं और रोहिणी१२ नामक स्त्रियों के उल्लेख हैं, जिनके कारण संहारकारी
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