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________________ ५६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ विवाह 35 1 शैली के परिवर्तनों के सम्बन्ध में कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य दिये हैं, जो इस के समान अनन्त हैं ।१९ तृष्णा की उपस्थिति में शांति नहीं मिल सकती प्रकार हैं१३ हैं । इच्छाएं-आकांक्षाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं, जिससे नये-नये क्र०सं० घटना आविष्कार होते जा रहे हैं। किसी ने कहा भी है-आवश्यकता आविष्कार दम्पति में से किसी एक की मृत्यु की जननी है (Necessity is the mother of Invention) । तलाक आवश्यकता और आविष्कार का क्रम निरन्तर चलता रहा, जिसका चोट या बीमारी दुष्परिणाम विश्वयुद्ध के रूप में हमारे सामने आया। आज ऐसे-ऐसे युद्ध आयुधों जैसे-एटम बम, हाइड्रोजन बम, मेगाटन बम और ड्रम्स डे का कार्य से निष्कासन अविष्कार हो चुका है, जो कुछ ही क्षणों में सम्पूर्ण विश्व को नष्ट कर सेवानिवृत्ति दें। धन, सत्ता और यश की लिप्सा में मानव पागल हो रहा है । अत: लैंगिक समस्याएं सम्पूर्ण विश्व ही तनाव से ग्रसित है । जैसे-जैसे लाभ होता है, लोभ की कार्य (व्यवसाय) में परिवर्तन २९ वृत्ति बढ़ती है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी कहा गया है- 'ज्यों-ज्यों लाभ जीवन की स्थितियों में परिवर्तन ___ २५ होता है, त्यों-त्यों लोभ बढ़ता जाता है । लाभ लोभ को बढ़ाने वाला १०. सोने या आहार सम्बन्धी आदतों में परिवर्तन १६ है। दो मासा सोने से होने वाला कपिल का कार्य लोभवश करोड़ों से उपर्युक्त तालिका में दी गई घटनाओं के अंक सभी व्यक्तियों भी पूरा न हो सका । २० दशवैकालिक के अनुसार- क्रोध से प्रीति का, पर समान रूप से लागू नहीं होते, फिर भी इन कारणों से तनाव तो मान से विनय का, माया से मित्रता का और लोभ से सभी सद्गुणों का अवश्य ही उत्पन्न होता है, चाहे उसका कितना ही प्रतिशत क्यों न हो। नाश होता है ।२१ तृष्णा, लोभ, लिप्सा, स्वार्थ परायणर्ता तनावों के यदि इनका योग ३०० हो जाता है तो उसे महातनाव से ग्रसित माना प्रमुख कारणों में से हैं । साध्वी कनकप्रभा के शब्दों में - 'विनाश के जाता है। इस तरह अंकों के आधार पर तनाव के कारणों की तीव्रता- विभिन्न उपकरणों के भार से लदा विश्व कराह रहा है एवं पेचीदा मन्दता का भी निर्धारण हो जाता है । राजनैतिक स्थितियां उसे और भी उलझा रही हैं । सत्ता का व्यामोह, जैन दृष्टि में तनावों का मूल कषाय को माना गया है । कषाय विस्तारवादी मनोवृत्ति और अस्मिता का पोषण, इनसे आक्रान्त होकर 'कष' और 'आय' इन दो शब्दों के योग से बना जैन धर्म का एक विश्वचेतना उस चौराहे पर खड़ी है, जिसकी कोई भी राह निरापद नहीं पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ है- कर्मों का बन्धन । मूलत: कषाय है ।२२ चार ही हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ ।५ ये कषायिक वृत्तियाँ अर्थात् माया-लोभ और क्रोध-मान क्रमश: राग तथा द्वेष की जननी हैं।१६ तनाव के प्रकार इसीलिए आगमों में क्रोध को क्षमा-शांति से, मान को मृदुता-नम्रता तनाव के प्रकारों को व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं विश्वव्यापी से, माया को ऋजुता-सरलता से और लोभ को तोष-संतोष से जीतने रूपों में विभक्त कर सकते हैं, जो इस प्रकार हैं - का मार्ग बताया गया है। तीव्रता-मन्दता और स्थायित्व के आधार पर भी आगमों में इन्हें पुन: चार-चार भागों में विभाजित किया गया है - व्यक्तिगत तनाव- प्रत्येक क्षेत्र में कार्य करने वाले व्यक्ति अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन ।१८ अनन्तानुबन्धी तनाव से ग्रसित हैं। चाहे मिल मालिक हो, मजदूर हो, व्यापारी हो, कषाय अनन्त काल तक, अप्रत्याख्यानी कषाय का समय एक वर्ष, कर्मचारी हो, प्रशासक हो, सेठ हो, वकील हो अथवा अध्यापक होप्रत्याख्यानी कषाय का समय चार मास तथा संज्वलन कषाय का समय सभी वर्गों के लोग किसी न किसी कारण से तनावयुक्त जीवन जी रहे पन्द्रह दिन माना गया है । जैसे-जैसे कषायिक पर्ते खुलती जाती हैं, हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने से उच्च-स्तर के व्यक्ति को देखता है, उसकी वैसे-वैसे अशान्ति, आकुलता एवं तज्जन्य तनावों की परतें स्वयं सुख-सुविधाओं को देखकर उन्हें प्राप्त करने में जुट जाता है । जिसके अनावरित होती जाती हैं। कारण उसका दिन का चैन व रात की नींद तक हराम हो जाती है। आज के वैज्ञानिक युग में विज्ञान के द्वारा जितना भी औद्योगिक नींद लेने के लिए भी औषधियों का सेवन करना पड़ता है। यदि वह विकास हुआ है, उसके अनियन्त्रित होने के कारण, मानव जीवन ही सुविधाएं प्राप्त कर भी लेता है तो कभी टेलीफोन की घंटी उसकी नींद असन्तुलित हो गया है। औद्योगिक क्रान्ति के कारण भौतिक अभिवृद्धि में व्यवधान डाल देती है। धन मिलने पर भी सुख मिल जाये, यह तो हुई लेकिन साथ ही आवश्यकताएं भी असीमित हो गईं, जिससे आवश्यक नहीं है । असन्तोष-क्लेश के कारण वह अस्वस्थ हो जाता लालसा, लोभ तृष्णा भी बढ़ी और तनावों का विकास हुआ, क्योंकि है, रक्तचाप जैसी बीमारी का शिकार हो जाता है । अपने उपलब्ध सुखों इच्छाएं अनन्त हैं । उत्तराध्ययनसूत्र में कहा भी गया है- इच्छाएं आकाश को भूलकर बाह्य जगत् में व्यक्ति उसको ढूँढ़ता फिरता है, ठीक उसी Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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