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________________ जैन कला विषयक साहित्य धर्म और संस्कृति की भाँति 'कला' शब्द भी बहुप्रचलित और बहुचर्चित रहा है। कला की अनेकविध परिभाषाएँ एवं व्याख्याएँ की गई है। 'कल' धातु से व्युत्पन्न होने कारण 'कला' शब्द का अर्थ होता है करना, सृजन, रचना, निर्माण या निषपन्न करना, और 'कं लातीति कला' सूत्र के अनुसार 'जो आनंद दे वह कला है।' शैवागम में उसे 'किचित्कर्तृत्वलक्षण' अर्थात् संकुचित कर्तृत्वशक्ति माना गया है, और क्षेमराज के अनुसार 'करना आत्मा की वह कर्तृत्वशक्ति है जो वस्तुओं व प्रमाता के स्व को परिमित रूप में व्यक्त करे। वात्स्यायन ने कला का सम्बन्ध कामपुरुषार्थ के साथ जोड़ा है और उसके ६४ मुख्य भेद तथा ५१८ अवान्तर भेद किये हैं। आचार्य जिनसेन के अनुसार आदि पुरुष भगवान् ऋषभदेव ने पुरुषों की ७२ और स्त्रियों की ६४ कलाओं की शिक्षा युगारंभ में ही दी थी। इनमें समस्त लौकिक ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, हस्त शिल्प, मनोरंजन के साधन आदि समाविष्ट हो जाते हैं। उपर्युक्त समस्त कलाएँ मुख्यतया दो वर्गों में विभाजित की जाती हैं- उपयोगी कला और ललित कला। उपयोगी कलाओं में निर्मित वस्तु की उपयोगिता की दृष्टि का प्राधान्य रहता है, जबकि काव्य संगीत चित्रमूर्ति स्थापत्य नामक पांचों ललितकलाओं में आनन्द प्रदान करने की दृष्टि का प्राधान्य एवं महत्व रहता है। किसी देश, • जाति या परम्परा की सांस्कृतिक बपौती या समृद्धि का मूल्यांकन उसकी ललित कलाकृतियों के आधार पर ही बहुधा किया जाता है। वे संस्कृति - विशेष के प्रतिबिम्ब एवं मानदण्ड, दोनों ही होती हैं। जैसा कि एक विद्वान ने कहा है, 'कलानागर जीवन की समृद्धि का प्रमुख उपकरण है और उसके द्वारा सुख-सौभाग्य की सिद्धि के साथसाथ व्यक्तित्व का परिष्कार भी होता है, अर्थात जीवन में सौंदर्य तथा समृद्धि का संचार, व्यक्तित्व का संस्कार और चित्त प्रसादन होता है।' इस प्रकार, संक्षेप में कलाकार की निज की सौन्दर्यानुभूति की लोकोत्तर आनन्द प्रदायिनी रसात्मक अभिव्यक्ति को 'कला' कह सकते हैं। सुदूर अतीत से चली आई तथा प्राय: सम्पूर्ण भारतवर्ष में अल्पाधिक व्याप्त जैन संस्कृति का विभिन्नयुगीन कलावैभव अतिश्रेष्ठ विपुल एवं विविध है। अपने विविध रूपों को लिए हुए काव्य और संगीत को छोड़ भी दें और केवल चित्र, मूर्ति एवं स्थापत्यशिल्प को ही लें, जैसा कि कलाविषयक आधुनिक ग्रन्थों में प्राय: किया जाता है, तो भी इन तीनों ही से सम्बन्धित कलाकृतियों में, बाहुल्य एवं विविधता की दृष्टि से जैन परम्परा किसी अन्य परम्परा से पीछे नहीं Jain Education International डाँ० ज्योति प्रसाद जैन रही है। अतएव भारतीय कला साहित्य में भी जैनकला का अपना प्रतिष्ठित स्थान रहा है। कला साहित्य दो प्रकार का होता है- एक तो तकनीकी, जिसमें कला विशेष की कृतियों के निर्माण के सिद्धांत, विधि, सामग्री आदि का वैज्ञानिक विवेचन होता है, दूसरा वह जिसमें विशेष कलाकृतियों का विवरण या वर्णन होता है, तुलनात्मक अध्ययन, समीक्षण और मूल्यांकन भी होता है। प्राचीन साहित्य में मानसार, समरांगणसूत्रधार, वास्तुसार जैसे ग्रन्थों में प्रथम प्रकार का कलासाहित्य मिलता है। मानसार को कई विद्वान जैन कृति मानते हैं, ठक्करफेर का वास्तुसार तथा मण्डनमंत्री के ग्रन्थ तो जैन रचनाएं ही हैं। रायपसेणइय आदि कतिपय आगमसूत्रों में भी इस प्रकार की क्वचित् सामग्री प्राप्त होती है। प्रतिष्ठा पाठों में जिनमूर्तियों एवं अन्य जैन देवी-देवताओं का प्रतिमाविधान वर्णित है। जैन पुराण एवं कथासाहित्य में अनेक स्थलों पर विविध चित्र, मूर्ति एवं स्थापत्य कलाकृतियों के सुन्दर वर्णन या विवरण उपलब्ध है। आधुनिकयुगीन कला साहित्य मैं : (१) प्रथम तो पुरातात्विक सर्वेक्षण, उत्खनन, शोध-खोज द्वारा विभिन्न प्रदेशों या स्थलों में प्राप्त पुरावशेषों, कलाकृतियों आदि के विवरण हैं। गत शताब्दी के उत्तरार्ध में जनरल अलेक्जेण्डर कनिंघम व उसके प्राय: समकालीन अन्य सर्वेक्षकों की बृहत्काय रिपोर्टों में भारतवर्ष के विभिन्न भागों में बिखरी कलाकृतियों का आकलन हुआ। फुहरर ने १८९१ में तत्कालीन पश्चिमोत्तर प्रदेश ( वर्तमान उत्तर प्रदेश) के पुरावशेषों का जिलेवार वर्णन दिया था। अन्य कई विद्वानों ने उसी प्रकार अन्य कई प्रदेशों का दिया । तदनन्तर ही पुरातत्व विभाग की रिपोर्टों, बुलेटिनों आदि में नवीन जानकारी में आई सामग्री दी जाती रही है। स्वभावतः इन विवरणों में तत्तत् प्रदेशों में प्राप्त जैन कलावशेष भी समाविष्ट हुए। स्व० ब्र० शीतलप्रसादजी ने वैसी रिपोर्टों के आधार से ही मद्रास, मैसूर, बम्बई संयुक्त प्रांत (उ०प्र०) आदि कई प्रान्तों के प्राचीन जैन स्मारकों पर पुस्तकें लिखी व प्रकाशित की थी। (२) दूसरे भारतीय इतिहास सम्बन्धी विविध आधुनिक ग्रन्थों में विभिन्न युगों को सांस्कृतिक झलक प्रस्तुत करने के निमित्त तत्सम्बन्धित कलावैभव की समीक्षा व उल्लेख भी रहता है और उनमें भी जैन कलाकृतियाँ अल्पाधिक सम्मिलित की ही जाती हैं। इस प्रकार इंडियन एन्टीक्वेरी, रायल एशियाटिक सोसा की विभिन्न शाखाओं के जरनल अन्य ऐतिहासिक-सांस्कृतिक शोध पत्रिकाओं में भी प्रसंगवश जैन कला का विवेचन होता रहा है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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