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________________ तपागच्छ-कमलकलशशाखा का इतिहास शिव प्रसाद __ तपागच्छीय आचार्य सोमसुन्दरसूरि के शिष्य और मुनिसुन्दरसूरि, बने तब सोमदेवसूरि ने अपने शिष्य शुभलाभ को आचार्य पद प्रदान रत्नशेखरसूरि आदि के आज्ञानुवर्ती आचार्य सोमदेवसूरि अपने समय कर सुधानन्दनसूरि नाम दिया। वि०सं० १५११ में लिखी गयी के समर्थ कवि और प्रमुख वादी थे। मेवाड़ के शासक राणाकम्भा, शांतिनाथचरित की प्रतिलेखन प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उक्त प्रति जमापद के शासक खेंगार और चांपानेर के शासक जयसिंह को अपनी सोमदेवसृरि के शिष्य के उपदेश से लिखी गयी। सोमदेवसूरि के एक काव्यकला से इन्होंने प्रभावित किया था। इनके द्वारा रचित अन्य शिष्य चारित्रहंसगणि हुए जिनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं सिद्धान्तस्तवअवचूरि, कथामहोदधि, चतुर्विंशतिजिनस्तोत्र, मिलती किन्तु इनके शिष्य सोमचारित्र ने वि०सं० १५४/ यस्मद्स्मद्दष्टादसस्तव की अवचूरि (रचनाकाल वि०सं० १४९७/ ई०स०१४८५ में गुरुगुणरत्नाकरकाव्य की रचना की। इस काव्य ई०स०१४४१) आदि कृतियां मिलती हैं।२ वि०सं० १५१७, में आचार्य लक्ष्मीसागरसूरि का जीवनवृत्तांत वर्णित है। १५१८ और १५२० के प्रतिमा लेखों में इनका नाम मिलता है। सोमदेवसूरि के एक शिष्य सुमतिसुन्दर हुए जिनके उपदेश दिल्ली स्थित नवघरे के मंदिर में भगवान् शांतिनाथ की से चालिग (?) नामक एक श्रावक, जो राणकपुर स्थित त्रैलोक्यदीपक प्रतिमा पर वि० सं० १५१७ का एक लेख उत्कीर्ण है। इसमें प्रासाद के निर्माता धरणाशाह के भाई रत्नसिंह का पुत्र और मालवा के रत्नशेखरसूरि और लक्ष्मीसागरसूरि के साथ सोमदेवसूरि का भी नाम सुल्तान गयासुद्दीनखिलजी का धर्मभ्राता था, ने राणा लक्षसिंह की मिलता है। अनुमति से अचलगढ़ पर विशाल चौमुख प्रासाद का निर्माण कराया अचलगढ़ स्थित चौमुख जिनालय में प्रतिष्ठापित आदिनाथ और उसमें पित्तल की १२०मन वजन की जिन प्रतिमा प्रतिष्ठापित की प्रतिमा पर वि० सं० १५१८ वैशाख वदि४ का एक लेख उत्कीर्ण करायी। है। इसमें तपागच्छीय आचार्य सोमसुन्दरसूरि के पट्टधर के रूप में सुमतिसुन्दरसूरि के उपदेश से मांडवगढ़ के संघवी वेलाक मुनिसुन्दरसूरि और जयचन्द्रसूरि तथा इन दोनों के पट्टधर के रूप में ने सुल्तान से फरमान प्राप्त कर संघ के साथ जीरापल्ली, अबूंदगिरि, रत्नशेखरसूरि एवं रत्नशेखरसूरि के शिष्य के रूप में सोमदेवसूरि और राणकपुर आदि तीर्थों की११। । लक्ष्मीसागरसूरि का नाम मिलता है। ठीक यही बात इसी जिनालय सुधानन्दन के एक शिष्य (नाम अज्ञात) ने वि०सं०१५३३/ में प्रतिष्ठापित इसी समय की शांतिनाथ और नेमिनाथ की प्रतिमाओं ई०स० १४७७ के आसपास ईडरगढ़चैत्यपरिपाटी१३ की रचना की। पर उत्कीर्ण लेखों से भी ज्ञात होती है। पार्श्वनाथदेरासर, देवसानोपाडो, सुमतिसुन्दर के शिष्य कमलकलश हुए। इन्हीं से वि० सं०१५५४ अहमदाबाद में संरक्षित अभिनन्दन स्वामी की धातु प्रतिमा वि०सं० या १५५५१३ (अन्य मतानुसार वि०सं० १५७२१४) में तपागच्छ १५२० आषाढ़ सुदि २ गुरुवार का एक लेख उत्कीर्ण है। इसमें की एक नई उपशाखा-कमलकलशशाखा अस्तित्व में आयी। किस सोमदेवसूरि का उल्लेख करते हुए उन्हें लक्ष्मीसागरसूरि का शिष्य कहा कारण से और कहां इस शाखा का जन्म हुआ, इस सम्बन्ध में कोई गया है। जानकारी नहीं मिलती। रत्नशेखरसूरि के पश्चात् लक्ष्मीसागरसूरि तपागच्छ के नायक कमलकलशसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित कुछ जिन प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं जो वि० सं० १५५१ से लेकर १६०३ तक की हैं। इनका विवरण इस प्रकार है: १. वि० सं० तिथि/मिति लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान संदर्भ ग्रन्थ १५५१ वैशाख सुदि १३ पद्मप्रभ की प्रतिमा अगरचन्द भंवरलाल नाहटा, गुरुवार का लेख संपा०, बीकानेरजैनलेखसंग्रह, लेखांक १२५३. २. १५५३ वैशाख दि शांतिनाथ की नेमिनाथ का पूरनचन्द नाहर, संपा०, प्रतिमा का लेख पंचायती बड़ा जैनलेखसंग्रह, भाग१, मंदिर, अजीमगंज, लेखांक१५. मुर्शिदाबाद Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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