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________________ २२० जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ जयकल्याण के एक शिष्य चारित्रसुन्दर अपरनाम चरणसुन्दर१६ कमलकलशशाखा में हर्षरत्नसूरि नामक आचार्य हुए जिनके शिष्य हुए जो वि० सं० १५६६ फाल्गुन सुदि १० को अचलगढ पर निर्मित जीवणविजय ने वि० सं० १८३८ में अपने गुरु की चरणपादका आदिनाथ प्रासाद में प्रतिमाप्रतिष्ठा के समय उपस्थित थे। स्थापित करायी। इस प्रकार वि०सं० की १९वीं शताब्दी के प्राय: मध्य __ जयकल्याण के एक अन्य शिष्य विमलसोम हुए जिनके द्वारा तक इस शाखा का अस्तित्त्व रहा। रचित न कोई कृति मिलती है और न ही कोई जिन प्रतिमा। ठीक यही संदर्भ बात इनके शिष्य लक्ष्मीरत्न के बारे में भी कही जा सकती है, किन्तु १. "तपागच्छ-कमलकलशशाखा की पट्टावली" इनके शिष्य ने (अपने को लक्ष्मीरत्नशिष्य बतलाते हुए) वि० सं० की मोहनलाल दलीचंद देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग ९, संपा०, १७वीं शताब्दी में सुरप्रियरास की रचना की।१७ जयन्त कोठारी, मुम्बई १९९७ ई०, पृष्ठ १०६-७. ___ कमलकलशशाखा से सम्बद्ध अगला साक्ष्य इसके लगभग २. वही १०० वर्ष पश्चात् का है। वि० सं० १६५६ में कोकशास्त्रचतुष्पदी के ३. पूरनचंद नाहर, जैनलेखसंग्रह, भाग १, कलकत्ता १९१८ ई०, कर्ता नर्बदाचार्य ने स्वयं को कमलकलशशाखा के मतिलावण्य का लेखांक ४८३. शिष्य कहा है १८। चारित्रसून्दर एवं लक्ष्मीरत्न आदि के साथ इनका क्या ४. मनि जिनविजय, संपा०, प्राचीनजैनलेखसंग्रह, भाग२, भावनगर सम्बन्ध रहा, प्रमाणों के अभाव में यह जान पाना कठिन है। १९२१ ई०स०, लेखांक २६४. कमलकलशशाखा से सम्बद्ध अगला साक्ष्य इसके लगभग ५. वही, लेखांक २६५,२६७.. १३५ वर्ष पश्चात् का है। यह वि० सं० १७८५ का एक शिलालेख मुनि जयन्तविजय, संपा० अर्बुदप्राचीनजैनलेखसंदोह, उज्जैन है। जो विमलवसही, आबू१९ से प्राप्त हुआ है। इसमें कमलकलश शाखा वि० सं० १९९४, लेखांक ४६७,४६९. के पद्मरत्नसूरि और उनके शिष्यों-उमंगविजय, भावविजय आदि द्वारा ६. मुनि बुद्धिसागर, संपा०, जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग१, यहां की यात्रा करने का उल्लेख है। लेखांक १०६०. जैन मंदिर माकरोरा, सिरोही से प्राप्त वि०सं०१७९० के ७. तपागच्छ-कमलकलशशाखा की पट्टावली एक शिलालेख में तपागच्छीय कमलकलशशाखा के रत्नसूरि और उनके देसाई, पूर्वोक्त, पृष्ठ १०६. शिष्य कमलविजयगणि के चातुर्मास करने का उल्लेख है। ८. मुनि चतुरविजय, संपा०, श्रीजैनस्तोत्रसन्दोह, भाग २, जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं वि०सं० १७८५ के लेख अहमदाबाद १९३६ई०, प्रस्तावना, पृष्ठ १०४. में पद्मरत्नसूरि का नाम आ चुका है, अत: वि०सं० १७९० के मोहनलाल दलीचंद देसाई, जैनसाहित्यनो संक्षिप्तइतिहास, शिलालेख२° में उल्लिखित रत्नसूरि को समसामयिकता, नामसाम्य मुम्बई १९३३ ई०, कंडिका ७२९, पृष्ठ ५०२. आदि के आधार पर उक्त पद्मरत्नसूरि से अभिन्न माना जा सकता है। १०. वही, कंडिका ७२५, पृष्ठ ४९९-५००. इस आधार पर दोनों शिलालेखों में उल्लिखित भावविजय और ११. वही, कंडिका ७२६, पृष्ठ ५००. कमलविजय परस्पर गुरुभ्राता सिद्ध होते हैं। १२. वही, कंडिका ७२६, टिप्पणी, पृष्ठ ४९९. नईदाचार्य और भावरत्नसूरि के बीच किस प्रकार का सम्बन्ध १३. द्रष्टव्य- संदर्भ संख्या ७ था, यह ज्ञात नहीं होता। १४. मुनि चतुरविजय, पूर्वोक्त, प्रस्तावना, पृष्ठ ११०. भावरत्नसूरि (वि० सं० १७८५-९०) शिलालेख १५. वही, पृष्ठ ११०-११. १६. मुनि जयन्तविजय, पूर्वोक्त, लेखांक ४६४, ४७१, ४७३, ४७४, ४८२, ४८३ एवं ४८४. मुनि जिनविजय, प्राचीनजैनलेखसंग्रह, भाग २, लेखांक भावविजय कमलविजय २६३, २६८. कमलकलशशाखा से सम्बद्ध अगला साक्ष्य वि०सं० १७. जैनगूर्जरकविओ, भाग १, पृष्ठ २४४-४५. १८३८ का एक शिलालेख२१ है जो अचलगढ़ से प्राप्त हुआ है। यह १८. Vidhatri Vora.Ed. Catalogne of GujaratiMss. Muni शिलालेख इस शाखा के हर्षरत्नसूरि और सुन्दरविजयगणि की पादुका Shree PunyaVijayajis Collection. L.D. Serics No. पर उत्कीर्ण है। 71. Ahmedabed 1978 A.D. P-477. चूकि वि०सं० १७८५ और १७९० में इस शाखा के जैनगूर्जरकविओ, भाग २, पृष्ठ ३००, ३०३. आचार्यों का रत्नान्त नाम मिलता है, यही बात वि० सं० १८३८ के १९. अर्बुदप्राचीनजैनलेखसंदोह, लेखांक १९७. चरणपादुका के लेख में भी हम देखते हैं, अत: यह कहा जा सकता २०. जैनलेखसंग्रह, भाग १, १९१८ ई, लेखांक ९७०.. है कि भावरत्नसूरि के पश्चात् और वि०सं० १८३८ के पूर्व २१. अर्बुदप्राचीनजैनलेखसंदोह, लेखांक ४८९. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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