Book Title: Sushrut Samhita
Author(s): Sushrut Maharshi, Narayanram Acharya
Publisher: Chaukhambha Orientaliya

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Page 717
________________ 620 निबन्धसंग्रहाख्यव्याख्यासंवलिता [ उत्तरतन्त्रं प्रथमं लेख्यरोगप्रतिषेधमाह-अथात इत्यादि / यद्यपि चिकि- इदानीं सम्यग्लिखितस्य वर्त्मनो लक्षणमाह-असृगात्साप्रविभागीयोद्दिष्टात् 'छेद्यास्तेषु दशैकश्च' इत्यादिवचनात् / स्रावरहितमित्यादि / समं निम्नोन्नतत्वरहितम् / नखनिभं नखपूर्व छेद्यरोगाणामुपादानं प्राप्नोति, तथाऽपि लेख्याजनप्रसा- / स्येव निभा यस्य तत्तथा / तदेव व्रणवदुपचरणीयम् // ९॥च्छेद्यादिष्वल्पावस्थायां लेखनोपयोगाच्च लेख्यानां प्रागुपा- रक्तमक्षि स्रवेत् स्कन्नं क्षताच्छस्त्रकृताडुवम् // 10 // दानम् // 1 // 2 // रागशोफपरिस्रावास्तिमिरं व्याध्यनिर्जयः॥ नव येऽभिहिता लेख्याः सामान्यस्तेष्वयं विधिः॥। तेष्वये विधिः॥ वर्त्म श्यावं गुरु स्तब्धं कण्डूहर्षोपदेहवत् // 11 // स्निग्धवान्तविरिक्तस्य निवातातपसद्मनि // 3 // नेत्रपाकमुदीर्ण वा कुर्वीताप्रतिकारिणः॥ (आप्तैदृढं गृहीतस्य वेश्मन्युत्तानशायिनः // ) एतदुर्लिखितं ज्ञेयं स्नेहयित्वा पुनर्लिखेत् // 12 // सुखोदकप्रतप्तेन वाससा सुसमाहितः॥ दुर्लिखितस्य वर्त्मनो लक्षणमाह-रक्तमित्यादि / स्कन्नं खेदयेद्वर्त्म निर्भुज्य वामाङ्गुष्ठाङ्गुलिस्थितम् // 4 // त्यानम् / व्याध्यनिर्जय इति लेखनसाध्यस्य व्याधेरनुपशमः / अङ्गुल्यङ्गुष्ठकाभ्यां तु निर्भुग्नं वर्त्म यत्नतः॥ | अप्रतिकारिण इति तस्य प्रतिक्रियामकुर्वत इत्यर्थः / तत्र प्लोतान्तराभ्यां न यथा चलति स्रंसतेऽपि वा // 5 // चिकित्सामाह-स्नेहयित्वेत्यादि / केचित् 'खेदयित्वा' इति ततःप्रमृज्य प्लोतेन वर्म शस्त्रपदाङ्कितम् // पठन्ति // 10-12 // लिखेच्छस्त्रेण पत्रैर्वा, ततो रक्ते स्थिते पुनः॥६॥ व्यावर्तते यदा वर्त्म पक्ष्म चापि विमुंह्यति // खिन्नं मनोहाकासीसव्योषा जनसैन्धवैः॥ स्यात् सरुक् स्नावबहुलं तदतिस्रावितं विदुः॥१३॥ श्लक्ष्णपिष्टैः समाक्षीकैः प्रतिसार्योष्णवारिणा // 7 // स्नेहखेदादिरिष्टः स्यात् क्रमस्तत्रानिलापहः॥ प्रक्षाल्य हविषा सिक्तं व्रणवत् समुपाचरेत् // ___ अतिलिखितवम॑नो लक्षणमाह-व्यावर्तत इत्यादि / तच्चिखेदावपीडप्रभृतींख्यहादूर्ध्व प्रयोजयेत् // 8 // कित्सितमाह-स्नेहखेदादिरित्यादि / अनिलापहः क्रमोऽन्यो ऽपि परिषेकादिर्बाह्य आभ्यन्तरो वाऽऽहारादिकः / अनिलाव्यासतस्ते समुद्दिष्टं विधान लेख्यकर्मणि // पहेन वायुं जित्वा पश्चाद्रणवदुपचरणीयम् // 13 ॥तान् सर्वान् संख्ययाऽभिधाय संक्षेपार्थं तेष्वभिन्न विधि- | वावबन्धं क्लिष्टं च बहलं यश्च कीर्तितम् // 14 // मुपदिशन्नाह-नवेत्यादि / तमेव सामान्यविधिमाह-स्निग्धेत्यादि ।-स्निग्धवान्तविरिक्तस्यत्यत्रानुक्तोऽपि स्नेहानन्तरं खेदः पोथकीश्चाप्यवलिखेत् प्रच्छयित्वाऽग्रतः शनैः॥ कार्यः / सुसमाहित इत्यनेन यथा दृशोः पीडा न स्यात्तथा | इदानीं रोगविशेषे क्वचिदेव प्रच्छन्नेन रक्तहरणमृदुकरणखेदयेदिति द्योत्यते / निर्भुज्य परिवर्त्य, उत्तानीकृत्येत्यर्थः / पूर्वकं लेखनमतिदिशन्नाह-वर्मेत्यादि / अवलिखेत् शस्त्रेण, निर्भुनम् उत्तानीकृतम् / प्लोतान्तराभ्यां वस्त्रवेष्टिताभ्यामडल्य- न तु पत्रादिभिः // 14 // -: गुष्ठाभ्यां यथा न चलति न कम्पते, न वा संसते नाधः पतति, सम लिखेत्तु मेधावी श्यावकर्दमवर्मनी // 15 // तथा वर्त्म निर्भुज्येत्यर्थः / शस्त्रपदाङ्कितमिति प्रच्छयितव्ये | क्वचित् पुनर्लेखनमात्रमेव कर्तव्यं न पुनश्छेदभेदप्रच्छन्नाप्रच्छितं. भेदयितव्ये च भिनं, छेदनीये च छिन्नमित्यर्थः / नीति दर्शयन्नाह-सममित्यादि / समम् एककालमित्यर्थः वातकफन्याधिकठिनं दारुणं वर्त्म शस्त्रेण लिखेत् , पित्तरक्त- अन्ये तु नात्यवगाढं नात्युत्तानमिति सममाहुः // 15 // गदाकान्तं मदवर्म पुनः शेफालिकादीनां पत्रर्लिखेत् / पश्चा- कुम्भीकिनी शर्करां च तथैवोत्सङ्गिनीमपि // कमोह-तत इत्यादि / खिन्नं खेदितम् / मनोहा मनःशिला। कल्पयित्वा तु शस्त्रेण लिखेत पश्चादतन्द्रितः॥१६ आञ्जनं रसाजनम् / माक्षीकं सुवर्णमाक्षीकम् / प्रतिसाये कुत्रचिच्छेदपूर्वक लेखनमाह-कुम्भीकिनीमित्यादि / कल्पअवघष्य / हविषा घृतेन / व्रणवत् सद्योव्रणवत् सप्ताहं यित्वा लिमवेत्यर्थः / म यावत् , तदूर्ध्वं शारीरव्रणवत् ; तच्च पर्णबन्धादिना क्रमेण / | भवेयर्वम॑सु च याःपिडकाः कठिना भृशम् // खेदावपीडेत्यादि / यहादूर्ध्वं पुनव्रणवदेव स्वेदावपीडप्रभृ हस्वास्ताम्राश्च ताः पक्का भिन्द्याद्भिन्ना लिखेदपि 17 तीन प्रयोजयेदिति तात्पर्यार्थः / स्वेदावपीडादिकं समासेना कस्मिंश्चिद्भेदपूर्वकं लेखनमाह-भवेयुरित्यादि // 17 // भिधाय विस्तरेणातिदिशन्नाह-व्यासत इत्यादि / विधानं तरुणीश्चाल्पसंरम्भा पिडका बाह्यवर्त्मजाः // स्वेदावपीडादिकम् / लेख्यकर्मणीति सकललेखनाहंगदकर्मणीत्यर्थः // 3-8 // विदित्वैताः प्रशमयेत् स्वेदालेपनशोधनैः // 18 // असृगानावरहितं कण्डशोफविवर्जितम // 9 // इति सुश्रुतसंहितायामुत्तरतन्त्रान्तर्गते शासमं नखनिभं वर्त्म लिखितं सम्यगिष्यते // लाक्यतन्त्रे लेख्यरोगप्रतिषेधो नाम त्रयोदशोऽध्यायः // 13 // 1 'लेखनप्रसंगात्' इति पा०। 2 'प्लोतान्तरीकृतं नैव' इति पा। 3 'व्योषाञ्जनकसैन्धवैः' इति पा। / १'विमुञ्चति' इति पा०। २'कर्तयित्वा' इति पा०।

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