Book Title: Sushrut Samhita
Author(s): Sushrut Maharshi, Narayanram Acharya
Publisher: Chaukhambha Orientaliya

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Page 821
________________ 724 निबन्धसंग्रहाख्यव्याख्यासंवलिता [उत्तरतत्रं कुलत्थयूषो युक्ताम्लो लावकीयूषसंस्कृतः॥ प्रकारेण / सुखी संपद्यते सुखी भवतीत्यर्थः / उपसंहारमाहससैन्धवः समरिचो वातशूलविनाशनः // 93 // एतद्वातसमुत्थस्येत्यादि // 101 // 102 // कुलत्थयूष इत्यादि / युक्तं मात्रयोपहितमम्लं दाडिमादिकं अथ पित्तसमुत्थस्य क्रियां वक्ष्याम्यतः परम् 103 यत्र स युक्ताम्लः / लावकीयूषसंस्कृत इति लावकेन कृतो यूषो स सुखं छर्दयित्वा तु पीत्वा शीतोदकं नरः॥ लावकीयूषः, तेन संस्कृतः // 93 // शीतलानिच सेवेत सर्वाण्युष्णानि वर्जयेत्॥१०४॥ विडङ्गशिग्रुकम्पिल्लपथ्याश्यामाम्लवेतसान् // __ वातशूलोपक्रममभिधायेदानीं पित्तशूलचिकित्सामाह-अथेसुरसामश्वमूत्री च सौवर्चलयुतान् पिबेत् // 94 // त्यादि / अथेति वाक्यालङ्कारे, वाक्योपक्रमे इत्यन्ये / तदेष मद्येन वातजं शूलं क्षिप्रमेव प्रशाम्यति // चिकित्सितमाह-स इत्यादि / स पित्तशूली नरः, शीतोदकं विडनेत्यादि / शिग्रुः विटपशाकं, शोभाजनमपरे / श्यामा पीला, सुखं यथा भवति तथा छर्दयित्वा, शीतलानि भजेत, अरुणमूला त्रिवृत् / सुरसा तुलसी / अश्वमूत्री शल्लकी उष्णानि सर्वाणि वर्जयेदिति पिण्डार्थः // 103 // 104 // मणिराजतताम्राणि भाजनानि च सर्वशः॥ पृथ्वीकाजाजिचविकायवानीव्योषचित्रकाः॥९५॥ वारिपूर्णानि तान्यस्य शूलस्योपरि निक्षिपेत् // 105 // पिप्पल्यः पिप्पलीमूलं सैन्धवं चेति चूर्णयेत् // . __मणिराजतताम्राणीत्यादि / राजतं रूप्यमयम् / सर्वश / तानि चूर्णानि पयसा पिबेत् काम्बलिकेन वा // 16 // आमुखात् / अस्य पित्तशुलिनः // 105 // मध्वासवेन चुक्रेण सुरासौवीरकेण वा // गुडः शालिर्यवाः क्षीरं सर्पिःपानं विरेचनम् // अथवै(चै)तानि चूर्णानि मातुलुङ्गरसेन वा // 97 // जाङ्गलानि च मांसानि भेषजं पित्तशूलिनाम् 106 तथा बदरयूषेण भावितानि पुनः पुनः॥ रसान सेवेत पित्तनान पित्तलानि पिवर्जयेत् // तानि हिडप्रगाढानि सह शर्करया पिबेत् // 98 // | पालाशं धान्वनं वाऽपि पिबेयूषं सशर्करम् // 107 // सह दाडिमसारेण वर्तिः कार्या भिषग्जिता॥ गुडेत्यादि / पित्तनान् रसान् जागलवर्गे यानि निर्दिष्यानि सा वर्तिर्वातिकं शूलं क्षिप्रमेव व्यपोहति // 99 // पित्तहराणि मांसानि तत्कृतान् रसानित्यर्थः / पित्तलानीत्यादि / गुडतैलेन वा लीढा पीता मद्येन वा पुनः॥ पित्तलानि अन्नपानादीनि / पालाशं यूषं मांसादासरसमिपृथ्वीकेत्यादि / पृथ्वीका हिडपत्रिका / अजाजी उत्तरापथे त्यर्थः / धान्वनं जालमांसरसम् // 106 // 107 // जीरकविशेषः / काम्बलिकेन दधिमस्त्वम्लसिद्धयूषेण / चुकं | परूषकाणि मृद्धीकाखजूरोदकजान्यपि // . भुक्तम् / सौवीरकं विरेचनद्रव्यविकल्पकथितम् / पक्षान्तर- | तत् पिबेच्छर्करायुक्तं पित्तशूलनिवारणम् // 108 // माह-अथवेत्यादि / एतानि पूर्वोक्तानि चूर्णानि, बीजपूरकर- परूषकाणीत्यादि / परूषकाणि परुषकफलानि / उदकजानि : सेन बदरयूषेण वा पुनः पुनर्भावितानि हिजूत्कटानि शर्करया | पद्मानि // 108 // सह मातुलारसेनैव पिबेदिति पिण्डार्थः / सह दाडिमसारेणे- अशने भक्तमात्रे तु प्रकोपः श्लैष्मिकस्य च। त्यादि / तैरेव चूर्णैर्दाडिमसारेण सह भिषग्जिता वैद्येन | | वमनं कारयेत्तत्र पिप्पलीवारिणा मिषक॥ 109 // वर्तिर्वा कार्या / सा च वर्तिर्गुडतैलेन लीढा मद्येन वा पीता | श्लैष्मिकशूलचिकित्सामाह-अशने इत्यादि / अशने सती वातिकं शूलं क्षिप्रमेव हन्तीत्यर्थः // 95-99 // भोजने / श्लैष्मिकस्य श्लेष्मशूलस्य / तत्र श्लेष्मशूले / पिप्पलीवाबुभुक्षाप्रभवे शूले लघु संतर्पणं हितम् // 100 // रिणां पिप्पलीयुक्तपानीयेन, अन्ये वारिशब्दं क्वाथे वर्तयन्ति, उष्णैः क्षीरैर्यवागूभिः स्निग्धैर्मासरसैस्तथा // अपरे पिप्पलीशब्देन मदनफलबीजानि कथयन्ति // 109 // बुभुक्षाप्रभवे इत्यादि / लध्विति मात्रया खभावेन च / रूक्षः स्वेदःप्रयोज्यः स्यादन्याश्चोष्णाः क्रिया हिताः सन्तर्पणं भोजनम् / उष्णैरिति क्षीरादिभिः संबध्यते // 100 / - | पिप्पली शृङ्गवेरं च श्लेष्मशूले भिषग्जितम् // 110 // पातशले समत्पन्ने रुलं स्निग्धेन भोजयेत // 101 // सूक्षः खेदः प्रयोज्य इत्यादि / कक्षः खेदः स्निग्धरहितः सुसंस्कृताः प्रदेयाः स्युघृतपूरा विशेषतः॥ करीषादिकृतः / पिप्पलीङ्गवेरप्रयोगधूर्णकल्कक्काथादिविधिना वारुणी च पिबेज्जन्तुस्तथा संपद्यते सुखी // 102 // // 110 // एतद्वातसमुत्थस्य शूलस्योक्तं चिकित्सितम् // पाठां वचां त्रिकटुकं तथा कटुकरोहिणीम् // वातेत्यादि / सुसंस्कृताः शुण्ठीमरिचादिभिः / प्रदेया चित्रकस्य च नि!हे पिबेयूषं सहार्जकम् // 111 // दातव्याः / घृतपूरा घृतपूपा इत्यर्थः / वारुणी सुरा / तथा तेन पाठामित्यादि / पाठादीनि द्रव्याणि चूर्णितानि कल्कितानि १'मुरसामश्वकर्ण च' इति पा०। 1 'निह' इति पा०।

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