Book Title: Sushrut Samhita
Author(s): Sushrut Maharshi, Narayanram Acharya
Publisher: Chaukhambha Orientaliya

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Page 786
________________ अध्यायः 39] सुश्रुतसंहिता। AAAAAmanawwwmum पक्ष्यमाणानि पूर्वोक्तानि च यद्यपि विषमज्वरे पठितानि, धात्रीभृङ्गरजोभीरुकाकमाचीरसैघृतम् // तथाऽपि जीर्णज्वरेऽपि देयानि // सिद्धमाश्वपचीकुष्ठज्वरशुक्रार्जुनवणान् // 228 // कोलाग्निमन्थत्रिफलाकाथे दना घृतं पचेत् // 217 // हन्यान्नयनवदनश्रवणघ्राणजान् गदान् // तिल्वकावापमेतद्धि विषमज्वरनाशनम्॥ पटोलीपर्पटारिष्टेत्यादि / पटोल्यादीनां कुष्ठान्तानां कल्कैः, कोलामिमन्थत्रिफलेत्यादि / कोलं पञ्चकोलं, तिल्वकः पट्टि- धान्यादीनां स्वरसैश्च घृतं पाचनीयम् / अरिष्टो निम्बः, वृषो कारोध्रः / कल्पनामाह-पञ्चकोलादिद्रव्याणां पलशतं, पानी- वासकः, अम्बुदो मुस्तं, भूनिम्बः किराततिक्तकः, यासो दुरा. यपलानि द्वादशाधिकानि पञ्चशतानि, एकीकृत्य विपचेत्, लभा, शक्रयवः इन्द्रयवः, उत्पलं कुष्ठम् // २२६-२२८॥यावचतुर्थाशमष्टाविंशत्यधिकशतं निष्पद्यते; तेन क्वाथेन चतु- विडङ्गत्रिफलामुस्तमञ्जिष्ठादाडिमोत्पलैः // 229 // गुणेन तथा चतुर्गुणेन च दना द्वात्रिंशत्पलप्रमितं घृतम्, अष्ट- प्रियङग्वेलैलवालूकचन्दनामरदारुभिः॥ पलप्रमाणं तिल्वकावापं दत्त्वा पचेत् / अनेन विधिनाऽनुक्तप्र-बर्हिष्ठकुष्ठरजनीपर्णिनीसारिवाद्धयैः // 230 // माणानि तैलघृतानि पाचनीयानि / ब्रह्मदेवाचार्यस्तु पञ्चको हरेणुकात्रिवृहन्तीवचातालीशकेसरैः॥ लादीनां कषायत्रयेण पृथक् स्नेहचतुर्गुणेन तथा चतुर्थेन दना द्विक्षीरं विपचेत्सर्पिर्मालतीकुसुमैः सह // 231 // मेहचतुर्गुणेन च घृतं विल्वकावापं साधयति; तच प्रमादव्या जीर्णज्वरश्वासकासगुल्मोन्मादगरापहम् // ख्यानं, पश्चकोलादिकवायत्रयल जेजटादिष्वनुक्तेः // 21 // - एतत्कल्याणकं नाम सर्पिर्माङ्गल्यमुत्तमम् // 232 // पिप्पल्यतिविषाद्राक्षासारिवाबिल्वचन्दनैः // 218 // अलक्ष्मीग्रहरक्षोनिमान्द्यापस्मारपापनुत् // कटुकेन्द्रयवोशीरसिंहीतामलकीचनैः॥ शस्यते नष्टशुक्राणां बन्ध्यानां गर्भदं परम् // 233 // प्रायमाणास्थिराधात्रीविश्वमेषजचित्रकैः // 219 // मेध्यं चक्षुष्यमायुष्यं रेतोमार्गविशोधनम् // पक्कमेतैघृतं पीतं विजित्य विषमाग्निताम् // विडत्रिफलामुस्तेत्यादि / उत्पलं नीलोत्पलं, एला जीर्णज्वरशिरःशूलगुल्मोदरहलीमकान् // 220 // सूक्ष्मैला, एलवालुकं कुष्ठगन्धिकं, चन्दनं रक्तचन्दनं, अमक्षयकासं ससंतापं पार्श्वशुलानपास्यति॥ रदारुः देवदारुः, बर्हिष्ठं वालुकं, रजनीद्वयं पिण्डहरिद्रा पिप्पल्यतिविषेत्यादि / सारिवा उत्पलसारिवा सुगन्धमूला, दारुहरिद्रा च, पर्णिनीद्वयं शालपणी पृश्निपणी च, सारिवाद्वयं सिंही बृहत्कण्टकारिका, तामलकी दरफलिका, भूम्यामलकीति सारिवा उत्पलसारिवा च / विडमादिद्रव्यकल्कमष्टपलप्रमाणं लोके, स्थिरा शालपणी, तेषां कल्ककषायाभ्यां घृतं साधयेत् गव्यघृतप्रस्थं चोदकस्य चतुर्भिः प्रस्थैः साधयेत् / कार्तिक॥२१८-२२०॥ कुण्डस्तु इदं घृतमन्यथा पठति, स चादर्शनान लिखितः गडचीत्रिफलावासात्रायमाणायवासकैः // 221 // // 229-233 -- कथितैर्विधिवत्पकमेतैः कल्कीकृतैः समः॥ एतैरेव तथा द्रव्यैः सर्वगन्धैश्च साधितम् // 234 // द्राक्षामागधिकाम्भोदनागरोत्पलचन्दनैः॥ 222 // कपिलाया घृतप्रस्थं सुवर्णमणिसंयुतम् // पीतं सर्पिः क्षयश्वासकासजीर्णज्वरान् जयेत् // तत्क्षीरेण सहैकल्यं प्रसाध्य कुसुमैरिमैः // 235 // गुडूचीत्रिफलेया। एभिः द्राक्षादिभिः // 221 // 222 // - सुमनश्चम्पकाशोकशिरीषकुसुमैर्वृतम् // कलशीवृहतीद्राक्षात्रायन्तीनिम्बगोक्षुरैः॥ 223 // तथा नलदपमानां केशरैर्दाडिमय च // 236 // तिथौ प्रशस्ते नक्षत्रे साधकस्यातुरस्य च // बलापर्पटकाम्भोदशालपर्णीयवासकैः // पकमुत्कथितैः सर्पिः कल्कैरेभिः समन्वितम् 224 | कृतं मनुष्यदेवाय ब्राह्मणैरभिमन्त्रितम् // 237 // शटीतामलकीभार्गीमेदामलकपोकरैः॥ दत्तं सर्वज्वरान् हन्ति महाकल्याणकं स्विदम् 238 क्षीरविगुणसंयुक्तं जीर्णज्वरमपोहति // 225 // दर्शनस्पर्शनाभ्यां च सर्वरोगहरं शिवम् // शिरःपार्श्वरजाकासायप्रशमनं परम् // अधृष्यः सर्वभूतानां वलीपलितवर्जितः // 239 // अस्याभ्यासाद्धृतस्येह जीवेवर्षशतत्रयम् // कलशीयादि / कलशी पृश्निपर्णी, प्रायन्ती त्रामगाणा, अम्भोदो मुख्खा / एभिः शव्यादिभिः / अनुक्कमपि चतुर्गुणं महाकल्याणकमाह-एतैरेव तथा द्रव्यरित्यादि / एतैईन्यैजलं देखें, तद्विना पाको न स्वादिति वृद्धभिषजः // 223 खथा सर्वगन्धैश्च कपिलाघृतप्रस्थं सुवर्णादियुक्तं, तत्साधितं सपिरेतैः सुमनादिजैः कुसुमैः कपिलाक्षीरेण सहैकथ्यं कृतं, 225 // पुनः प्रसाध्य ब्राह्मणैरभिमश्रितं, वैद्यातुरयोः प्रशस्ततिध्यादौ पटोलीपर्पटारिष्टगुडूचीत्रिफलावृषैः // 226 // मनुष्यदेवाय राज्ञे दत्तमिदं कल्याणकं घृतं सर्वज्वरान् हन्तीति कटुकाम्बुद निम्बयासयष्टयातचन्दनैः॥ दाशिक्रयवोशीरत्रायमाणाकणोत्पलैः // 227 // / 1 'नीलोत्पलम्' इति पा० / सु० सं०८७

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