Book Title: Sushrut Samhita
Author(s): Sushrut Maharshi, Narayanram Acharya
Publisher: Chaukhambha Orientaliya

Previous | Next

Page 787
________________ 690 निबन्धसंग्रहाख्यव्याख्यासंवलिता [ उत्तरतत्रं पिण्डार्थः / एतैः कल्याणकोविंडमादिभिः, सर्वगन्धैः एलादि- दुरालभापर्पटकत्रायमाणा: पलोन्मिताः॥२५०॥ पठितैः, मणिभिः स्फटिकादिभिः / तत्क्षीरेण कपिलाक्षीरेण / प्रस्थमामलकानां च क्वाथयेत्सलिलार्मणे॥ सुमना जाती, वृतं युक्तं, नलदं मांसी, पद्मं लोहितपद्मम् / तेन पादावशेषेण घृतप्रस्थं विपाचयेत् // 251 // साधकस्य वैद्यस्य / मनुष्यदेवाय नृपतये / अधृष्यः अजेयः / कल्कैः कुटजभूनिम्बधनयष्टया चन्दनैः॥ एतद्धृतं पाकद्वयसाधितं बोद्धव्यम् // 234-239 // - सपिप्पलीकैस्तत्सिद्धं चक्षुष्यं शुक्लयोहितम् // 252 गव्यं दधि च मूत्रं च क्षीरं सर्पिः शकृद्रसः॥२४०॥ ब्रा | घ्राणकर्णाक्षिवदनवर्त्मरोगवणापहम् // समभागानि पाच्यानि कलकांश्चैतान् समावपेत् // | रक्तपित्तकफखेदक्लेदपूयोपशोषणम् // 253 // त्रिफलां चित्रकं मुस्तं हरिद्रातिविषे वचाम् // 24 // | कामलाज्वरवीसर्पगण्डमालाहरं परम् // विडङ्गं ज्यूषणं चव्यं सुरदारु तथैव च // . त्रिफलेत्यादि / शुक्लयोः नेत्रगतरोगयोः ॥२४५-२५३॥पञ्चगव्यमिदं पानाद्विषमज्वरनाशनम् // 242 // शृतं पयः शर्करा च पिप्पल्यो मधुसर्पिषी // 254 // गव्यमित्यादि / शकृद्रसो गोपुरीषोत्थरसः / पाच्यानि पच- | पञ्चसारमिदं पेयं मथितं विषमज्वरे // नीयानि / कल्कप्रमाणमत्र स्नेहचतुर्थाशम् // 240-242 // क्षतक्षीणे क्षये श्वासे हृद्रोगे चैतदिष्यते // 255 // पञ्चगव्यमृते गर्भात्पाव्यमन्यद् पञ्चसारमाह-शृतं पय इत्यादि / शृतं पयः कथितं दुग्धं, अगर्भपञ्चगव्यमाह-पञ्चगव्यमृते गर्भादित्यादि / अन्यत् मथितं 'हस्तेन' इति शेषः // 254 // 255 // द्वितीयं पश्चगव्यम् / ऋते गर्भादिति द्वितीयं पश्चगव्यं कल्क लाक्षाविश्वनिशामूमञ्जिष्ठास्वर्जिकामयैः॥ विना पचनीयम् / एतेनैतदुक्तं भवति-पूर्व पञ्चगव्यं सकल्क, षड्गुणेन च तक्रेण सिद्धं तैलं ज्वरान्तकृत् // 256 // एतच द्वितीयमकल्कं; फलं च तुल्यम् // इदानीमन्तःपरिमार्जनमभिधाय बहिःपरिमार्जनार्थ तैल वृषेण च // | माह-लाक्षेत्यादि / विश्वं शुण्ठी, निशा हरिद्रा, मूर्वा चोरबलयाऽथ परं पाच्यं गुडूच्या तद्वदेव तु // 243 // स्नायुः, आमयं कुष्ठम् / लाक्षादिकल्कस्याष्टौ पलानि, तैलस्य जीर्णज्वरे च शोफे च पाण्डुरोगे च पूजितम् // द्वात्रिंशत्पलानि, तैलात् षड्गुणेन तक्रेण तैलं साधनीयम् / .. इदानीं पञ्चगव्योतत्रिफलादिकल्केन वृषादिपृथक्खरसत्र ज्वरान्तकृत् शीतपूर्वदाहपूर्वयोर्विनाशकारीत्यर्थः // 256 // येण घृतत्रयस्य साधनं निर्दिशनाह-वृषेण चेत्यादि / तद्वदिति क्षीरिवृक्षासनारिष्टजम्बूसप्तच्छदार्जुनैः। पूर्वोककल्पनयेत्यर्थः / तद्वच्छब्दो घृतत्रयेऽपि संबध्यते शिरीषखदिरास्फोटामृतवल्याटरुषकैः॥२५७॥ // 243 // कटुकापर्पटोशीरवचातेजोवतीघनैः॥ . एतेनैव तु कल्पेन घृतं पश्चाविकं पचेत् // | साधितं तैलमभ्यनादाशु जीर्णज्वरापहम् // 258 // पञ्चाजं पञ्चमहिषं चतुरुष्ट्रमथापि च // 244 // क्षीरिवृक्षेत्यादि / क्षीरिक्षा न्यग्रोधादयः, असनो बीजकः, - इदानी पश्चगव्योक्तविधिना पश्चाविकादीनि घृतानि पचनी- अरिष्टो निम्बः, सप्तच्छदः सप्तपर्णः, अर्जुनः ककुभः. यानीति दर्शयबाह-एतेनैव तु कल्पेनेत्यादि / अनेनैव कल्पेन आस्फाटा सारवा अका वा, तेजोवती काकमदेनिका / क्षीरिपूर्वोकपञ्चगव्यविधिना / चतुरुष्टुं शकृद्रसवर्जनेन // 244 // वृक्षादिकल्केनाष्टपलमितेन तैलप्रस्थं चतुर्गुणजन साधयेत् // 257 // 258 // त्रिफलोशीरशम्पाककटुकातिविषाघनैः॥ शतावरीसप्तपर्णगुडूचीरजनीद्वयैः॥ 245 // निर्विषैर्भुजगैर्नागैर्विनीतैः कृततस्करैः॥ चित्रकत्रिवृतामूर्वापटोलारिष्टवालकैः॥ त्रासयेदागमे चैनं तदह जयेन च // 259 // किराततिक्तकवचाविशालापक्षकोत्पलैः // 246 // | अत्यभिष्यन्दिगुरुभिर्वामयेदा पुनः पुनः॥ सारिवाद्वययष्ट्याहचविकारक्तचन्दनैः॥ मद्यं तीक्ष्णं पाययेत घृतं वा ज्वरनाशनम् // 260 // दुरालभापर्पटकत्रायमाणाटरूषकैः // 247 // पुराणं वा घृतं काममुदारं वा विरेचनम् // रामाकुहममजिष्ठामागधीनागरैस्तथा // निरूहयेद्वा मतिमान् सुखिन्नं तदहर्नरम् // 261 // धात्रीफलरसैः सम्यग्विगुणैः साधितं हविः 248 | इदानी विषमज्वराणां विशिष्टावस्थायां भूताभिषाजादीनां परिसर्पज्वरश्वासगुल्मकुष्ठनिवारणम् // वा विषमज्वराणां चिकित्सामाह-निर्विषैरित्यादि / निर्विषैः पाण्डुप्लीहामिसादिभ्य एतदेव पर हितम् // 249 // भुजगैः डण्डमाहिपताकाप्रमृतिभिः, नागैः हस्तिभिः, विनीतैः / पटोलकटुकादा/निम्बवासाफलत्रिकम् // हस्तिशिक्षाविद्भिविनम्रीकृतः, कृततस्करैः मिथ्याध्यारोपित१'पर्वोचकस्कयुक्तमित्यर्थः' इति पा०। १'विनीतफलैः' इति पा०।

Loading...

Page Navigation
1 ... 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900 901 902 903 904 905 906 907 908 909 910 911 912 913 914 915 916 917 918 919 920 921 922