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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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नं. २१ के जयपाल के स्थान पर जयधवला में 'जसफल' तथा हरिवंशपुराण में यशपाल नाम दिये हैं ।
नं. २३ के ध्रुवसेन के स्थान पर श्रुतावतार व शिलालेख नं. १०५ में द्रुमसेन तथा श्रुतस्कंध में 'धुतसेन' नाम है ।
नं. २६ के यशोभद्र के स्थान पर श्रुतावतार में अभयभद्र नाम है ।
नं. २७ केयशोबाहु के स्थान पर जयधवला में जहबाहु, श्रुतावतार में जयबाहु, व नंदि संघ प्राकृत पट्टावली में व आदि पुराण में भद्रबाहु नाम है। संभवत: ये ही नंदिसंघ की संस्कृत पट्टावली के भद्रबाहु द्वितीय हैं ।
इन सब नाम-भेदों का मूल कारण प्राकृत नामों पर से भ्रमवश संस्कृत रूप नाना प्रतीत होता है । कहीं कहीं लिपि में भ्रम होने से भी पाठ-भेद पड़ जाना संभव है । धरसेनाचार्य के समय का विचार
उक्त आचार्य परम्परा का प्रस्तुत खण्ड में समय नहीं दिया गया है। किन्तु धवला के वेदनाखण्ड के आदि में, जयधवला में व इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार में गौतम स्वामी से लगाकर लोहार्य तक का समय मिलता है, जिससे ज्ञात होता है कि महावीर निर्वाण के क्रमशः ६२ वर्ष में तीन केवली, १०० वर्ष में पांच श्रुतकेवली, १८३ वर्ष में ग्यारह दशपूर्वी, २२० वर्ष में पांच एकादशांगधारी और ११८ वर्ष में चार एकांगधारी आचार्य हुए। इस प्रकार महावीर निर्वाण से लोहाचार्य (द्वि.) तक ६२+१०० + १८३+२२०+११८ = ६८३ वर्ष व्यतीत हुए और इसके पश्चात् किसी समय धरसेनाचार्य हुए।
अब प्रश्न यह है कि लोहाचार्य से कितने समय पश्चात् धरसेनाचार्य हुए। प्रस्तुत ग्रन्थ में तो इसके संबन्ध में इतना ही कहा गया है कि इसके पश्चात् की आचार्य - परम्परा में धरसेनाचार्य हुए (पृष्ठ ६७) । अन्यत्र जहां यह आचार्य - परम्परा पाई जाती है वहां सर्वत्र वह परम्परा लोहाचार्य पर ही समाप्त हो जाती है । इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतार में प्रस्तुत ग्रंथों के निर्माण का वृतान्त विस्तार से दिया है । किन्तु लोहार्य के पश्चात् आचार्यों का क्रम स्पष्टत: सूचित नहीं किया। प्रत्युत, जैसा ऊपर बता आये हैं, उन्होंने कहा है कि इन आचार्यों की गुरु- परम्परा का कोई निश्चय नहीं, क्योंकि, उसके कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं। उन्होंने लोहार्य के पश्चात् चार और आचार्यों के नाम गिनाये हैं, विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हदत्त | और उन्हें आरातीय तथा अंशों और पूर्वी के एकदेश ज्ञाता कहा है ।