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रक्षा की ।
कुमारपाल स्वयं जिनवाणी के उपासक बन गये थे । उन्होंने संस्कृत - प्राकृत भाषा का अध्ययन किया था और जिनवचनों को संस्कृत काव्यों में निबद्ध किये थे । वे स्वयं चातुर्मास में पाटण में ही रहते थे और गुरुदेव के चरणों में बैठकर घंटों तक जिनवाणी का श्रवण करते थे । प्रातःकाल कुछ समय जिनवचनों का स्वाध्याय करने के बाद ही मुँह में पानी डालते थे । वे जानते थे, उनके तन-मन की रक्षा जिनवाणी ने कैसे की थी ! गुरुदेव हेमचन्द्रसूरिजी ने कैसे की थी !
उपाध्यायश्री विनयविजयजी ने 'शान्तसुधारस' के प्रारंभ में ही जिनवाणी की स्तुति की है, यह समुचित है । रम्या गिरः पान्तु वः । जिनेश्वरों की भव्य वाणी तुम्हारी रक्षा करे !
प्रतिदिन जिनवाणी की आराधना करें :
भव-वन में दूसरा कोई भी अपनी रक्षा करनेवाला नहीं है । और किसी पर भी विश्वास नहीं करना । कोई रक्षा नहीं करेगा, कोई दुःख में सहारा नहीं देगा । जिनवाणी ही सहारा देती है, आश्वासन देती है और सही मार्गदर्शन देती है । भीषण भव - वन में, जिनवाणी हमें अभय देती है
घोर अंधकार से भरे भव-वन में दिव्य दृष्टि देती है
कर्मलताओं से विकट भव-वन में सही रास्ता बताती है, भव-वन में शत्रुओं से बचानेवाली भी जिनवाणी है...
भव-वन में भटक भटक कर थके हुए जीवों को नयी शक्ति, नयी चेतनास्फूर्ति देनेवाली भी जिनवाणी है ।
इसलिए आग्रहपूर्वक कहता हूँ कि जिनवाणी की प्रतिदिन आराधना करते रहो । प्रतिदिन जिनवाणी का श्रवण करो, जिनवाणी का वांचन ( पठन) करो, जिनवाणी का चिंतन-मनन करो । कुछ मार्मिक हृदयस्पर्शी जिनवचनों को याद कर लो । स्मृति में भर लो ।
जिनवचनों की आराधना से मन को शान्ति मिलती है, समता मिलती है, समाधि प्राप्त होती है ! जिनवचनों से उलझनें सुलझ जाती हैं, शंकाओं का समाधान हो जाता है । जीवन की अंतिम क्षणें महोत्सव बन जाती हैं ।
आज बस, इतना ही ।
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शान्त सुधारस : भाग १
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