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सुमनसो मनसि श्रुतपावना निदधतां द्वयधिका दश भावनाः ।
यदिह रोहति मोहतिरोहिता-द्भुतगतिविदिता समतालता ॥४॥ समत्व पाने का निर्णय :
उपाध्यायश्री विनयविजयजी कहते हैं : बारह भावनाओं को हृदयस्थ करो। सुनने मात्र से ये भावनाएँ अंतःकरण को पावन करती हैं । और मोह से आच्छादित समता-लता पुनः नवपल्लवित होगी । मोह का आच्छादन दूर होगा ।
आपको भीतर में यदि समता पाने की, समंताभाव जाग्रत करने की तीव्र इच्छा जगी होगी और आत्मभाव को पावन बनाने की भावना पैदा हुई होगी तो ही आप मोह का आवरण दूर करने का प्रयत्न करेंगे । बारह भावनाओं का श्रवण करेंगे।
'मुझे समत्व पाना है, कुछ भी हो जायं... मुझे समताभाव में रहना है। यह निर्णय होना चाहिए अपने हृदय में । मुझे समत्व का सुख पाना है ! अब मुझे कषायजन्य सुखाभास नहीं चाहिए। ऐसा आत्मसाक्षिक दृढ़ संकल्प करना होगा ! ऐसे संकल्प के बिना समत्व पाना मुश्किल होगा। असंभव होगा। चूंकि अनादिकाल से जीव कषायजन्य सुखाभासों में ही भ्रमित हो, भटक रहा है । समत्व पाने का प्रयत्न ही नहीं किया है । मोह का आवरण दूर करने के उपाय ही नहीं किये हैं। आत्मा के ऊपर मोह के आवरण प्रगाढ़ बने हुए हैं । मोह के आवरण हटाये बिना सुख-शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती । डाकू माधोजी का मोह दूर हुआ :
अपने घर आकर माधोजी घर के बरामदे में शान्ति से बैठ गया। जो माधोजी एक क्षण भी शान्ति से बैठ नहीं सकता और एक क्षण भी स्थिरता नहीं होती ऐसे माधोजी चुपचाप बैठ गया थे । सूर्योदय होने पर, उनकी पत्नी ने उनके कंधे पकड़ कर हिलाये और बोली : उठिये, इस प्रकार मूढ़ बनकर क्यों बैठे हो ? क्या काम करके आये हो ? माधोजी मौन रहा । पत्नी ने दूसरी बार बुलाने का प्रयत्न किया... तीसरी बार प्रयत्न किया। सर पर से पाघ उतार ली । सामने आकर देखती है। माधोजी की आँखें आकाश की ओर थी, वे आकाश में टकटकी लगाकर देख रहे थे । माधोजी की पत्नी घबरा गई और चिल्ला कर बोली : इनको कुछ हो गया है... कोई भूत... स्त्री की आवाज सुनकर आसपास के लोग इकट्ठे हो गये । सब ने माधोजी को अपने-अपने ढंग से बुलाने का प्रयत्न किया, परंतु माधोजी नहीं बोला । बोला नहीं और अपनी जगह से हिला भी
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शान्त सुधारस : भाग १
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