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सरिता के प्रवाह की तरह लक्ष्मी-संपत्ति एक घर में, एक स्थान में नहीं रहती है । जैसे नदी का जल बहता रहता है, स्थान बदलता रहता है । संपत्ति उसके स्वामी का ( मालिक का) जीव लेकर जाती है । अर्थात् लक्ष्मी चली जाने पर कई लक्ष्मीपति के प्राण भी चले जाते हैं ।
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ऐसी अनित्य- अस्थिर वस्तुओं के लिए मूर्ख जीव कितने पाप बाँधता है ? अनेक प्रकार के पाप कर के वह संपत्ति पाने का प्रयत्न करता है ।
हे आत्मन्, तुझे राजऋद्धि प्राप्त हुई हो तो भी राचना मत, खुश नहीं होना । क्यों कि एक दिन वह राजऋद्धि नष्ट होनेवाली है । अथवा राजऋद्धि और परिवार को छोड़कर तुझे जाना पड़ेगा, तेरी मृत्यु हो जायेगी। दो-चार दिन परिवार रूदन करेगा... बाद में तुझे भूल जायेगा !'
मालवपति मुंज :
जयसोम मुनि, धन-संपत्ति को पाने की तरंगे जैसी कहते हैं और संध्या के रंग जैसी बताते हैं :
'धन-संपद पण दीसे कारमी जी, जेहवा जल - कल्लोल ।'
मुंज सरिखे मागी भीखड़ी जी
राम रह्या वनवास,
इणे संसारे सुख-संपदा जी जिम संध्या- राग विलास...'
जिस प्रकार संध्या के रंग आकाश में स्थिर नहीं होते, देखते-देखते विलीन हो जाते हैं, वैसे संसार में सुख-संपति देखते-देखते चली जाती है । इस बात को पुष्ट करने कवि ने दो प्राचीन द्रष्टांत दिये हैं। एक है मालवपति राजा मुंज का और दूसरा श्री रामचन्द्रजी का ।
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मालवदेश का राजा मुंज पराक्रमी था, विद्वान् भी था । परंतु एक दिन राजा तैलप ने उसको युद्ध में हरा दिया और उसको बाँधकर अपनी राजधानी में ले गया । कारावास में डाल दिया। परंतु जब मुंज ने कारावास से भागने की योजना बनायी, योजना राजा तैलप की बहन मृणालिनी को बता दी । क्यों कि मृणालिनी से उसका प्रेम हो गया था और उसको वह अपने साथ ले जाना चाहता था । मृणालिनी ने मुंजकी योजना राजा तैलप को बता दी ! तैलप राजा ने मुंज के हाथों पैरों में बेड़ियाँ डाल दी और हाथों में भिक्षापात्र पकड़ाया । अपनी नगरी
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शान्त सुधारस : भाग १
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