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तीर्थंकर परमात्मा भी अपना आयुष्य बढ़ा नहीं पाते ! एक क्षण भी बढ़ा नहीं पाते । श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने, देवराज इन्द्र की प्रार्थना होने पर कहा था न कि हे इन्द्र, आयुष्यकर्म मैं भी नहीं बढ़ा सकता ! आयुष्यकर्म पूर्ण होने पर, भगवान महावीर स्वामी का, देशना देते देते निर्वाण हो गया था । आयुष्यकर्म का विज्ञान समझें :
आयुष्यकर्म का मृत्यु के साथ संबंध है । चारों गति के जीवों के मृत्यु का संबंध आयुष्यकर्म के साथ होता है । प्रत्येक जीवात्मा, अपने आनेवाले जन्म का (मृत्यु के बाद) आयुष्यकर्म बाँध लेता है, निश्चित कर लेता है । कोई जीव देवगति का, कोई जीव मनुष्यगति का, कोई जीव तिर्यंचगति का, कोई जीव नरकगति का आयुष्यकर्म बाँध लेता है । मृत्यु के पहले आयुष्यकर्म बंध ही जाता है । आगामी जन्म का आयुष्यकर्म बंधने के बाद ही मृत्यु होती है । और, वर्तमान जीवन का आयुष्यकर्म पूर्ण होने पर मृत्यु होती है । और हमारे पास वैसा ज्ञान नहीं है, दिव्य ज्ञान नहीं है कि हम जान सकें कि हमारा कितना आयुष्य शेष है ! और यह भी नहीं जान सकते कि हमने कौन सी गति का आयुष्यकर्म बाँध लिया है । आयुष्यकर्म के विषय में हम पूर्णतया अज्ञानी हैं । मात्र देव जान सकते हैं, क्योंकि वे अवधिज्ञानी होते हैं । __ आयुष्यकर्म कभी भी, किसी भी क्षण समाप्त हो सकता है । इसलिए किसी भी समय मृत्यु हो सकती है । कोई भी शक्ति मृत्यु से बचा नहीं सकती है । अशरण भावना को एक सज्झाय में (काव्य में) कवि ने कहा है :
चक्री सुभूम ते जलधिमां हार्यों खटखंड राज रे, बूडयो चरम जहाज रे, देव गया सवि भाज रे...
लोभे गई तस लाज रे... बारह चक्रवर्ती हुए, इस अवसर्पिणी काल में । उनमें आठवाँ चक्रवर्ती हुआ सुभूम । सुभूम चक्रवर्ती ने इस भरतक्षेत्र के ६ खंड जीत लिये थे। फिर भी उसको संतोष नहीं हुआ। वह धातकीखंड के भरतक्षेत्र के दूसरे ६ खंड जीतने को चला। उसको पूरा लवणसमुद्र पार करना था। उसके पास चर्मरत्न था। अति विशालविराट चर्म के जहाज पर विशाल सेना लेकर, उसने प्रयाण किया । चर्म-जहाज को उठाकर हजारों देव चल रहे थे। सभी देवों को, जहाज को उठानेवाले सभी देवों को एक ही समय विचार आया कि यह चर्म-जहाज चक्रवर्ती के पुण्य से
अशरण भावना
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