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एक एव भगवानयमात्मा ज्ञानदर्शनतरङ्गसरङ्गः ।
सर्वमन्यदुपकल्पितमेद् व्याकुलीकरणमेव ममत्वम् ॥१॥ उपाध्यायश्री विनयविजयजी शान्तसुधारस ग्रंथ की चौथी भावना का मंगल प्रारंभ करते हुए कहते हैं : यह आत्मा एक ही है, यही प्रभु है, भगवान् है, ज्ञानदर्शन की तरंगों में मस्त है । इसके अलावा जो कुछ भी है, वह सब ममत्व मात्र है, कल्पना का विश्व है । यह ममत्व व्याकुलता को बढ़ानेवाला है। मैं आत्मा :
मैं आत्मा हूँ। 'मैं विशुद्ध आत्मद्रव्य हूँ, आत्मसत्ता हूँ। शुद्ध ज्ञान और दर्शन मेरे हैं, मेरे गुण हैं ।
आज हमें इस आत्मतत्त्व पर ही चिंतन-मनन करना है । जो हम स्वयं हैं, हमें अपने आपका चिंतन करना है । भावना के आलोक में उस आत्मद्रव्य को देखना है, आत्मसत्ता को निहारना है । आज उसी के गीत गाना है । शेष सब कुछ भूलकर... कल्पना के जगत् को भूलकर आत्मा की मस्ती का अनुभव करना
आतम सर्व समान : एक अध्यात्म के कवि ने गाया है : 'आतम सर्व समान, निधान महा सुखकंद,
सिद्ध तणा साधर्मी सत्ताए गुणवृन्द ! विशुद्ध आत्मसत्ता की दृष्टि से समग्र आत्मसृष्टि एक ही है । जैसी स्थिति सिद्ध भगवंतों की है वैसी सभी आत्माओं की है। इस दृष्टि से, विशुद्ध आत्मसत्ता की दृष्टि से हम सिद्धों के साधर्मिक हैं । उनके जैसे ही हैं । अनंत सुखमय हैं, ज्ञानमय हैं, गुणमय हैं।
मैं विशुद्ध आत्मा हूँ। मैं अनंत सुखमय हूँ। मैं अनंत ज्ञानमय हूँ। मैं अनंत गुणमय हूँ। सत्ता से सभी आत्मा एक-समान हैं ।
عالم
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शान्त सुधारस : भाग १
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