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कर । यों करके तू नमि राजर्षि की तरह परमानन्द का खजाना प्राप्त कर सकेगा ।" 'अध्यात्मगीता में श्री देवचंद्रजी ने भी कहा है -
तेह समतारस-तत्त्व साधे, निश्चलानंद अनुभव आराधे । तीव्र घनघाति निजकर्म तोड़े, संधि पडिलेहीने ते विछोड़े ॥ वही आत्मा समत्व की सिद्धि पाता है और निश्चल आनंद का अनुभव करता है, जो मोहनीय आदि घाती कर्मों को तोड़ने का पुरुषार्थ करता है । अवसर पाकर कर्मों को तोड़ता जाता है, कर्मों का क्षय-क्षयोपशम करता जाता है । नमि राजर्षि – समत्व-एकत्व का उत्सव :
उपाध्यायश्री विनयविजयजी ने नमिराजा' का उदाहरण दिया है । नमि राजवत् ! नमि राजर्षि की तरह तू भी परमानन्द की संपत्ति प्राप्त कर ! उत्तराध्ययन सूत्र में श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने ही स्वयं नमिराजा का पूरा एक अध्ययन कहा है । इन्द्र का और नमि राजर्षि का संवाद, वास्तव में हृदयस्पर्शी है । उस संवाद की कुछ बातें आपको सुनाता हूँ।
नमिराजा मिथिला के राजा थे । उनको पूर्वजन्म की स्मृति हो आयी थी । स्वर्गलोक जैसे श्रेष्ठ भोगसुखों के प्रति वे विरक्त बने, पुत्र का राज्याभिषेक कर दिया और उन्होंने अभिनिष्क्रमण किया, यानी भोगसुखों का, राज्यवैभव का त्याग कर वे साधु बन गये । 'मैं अकेला हूँ, इस निश्चय के साथ उन्होंने मिथिला का त्याग किया । जब वे मिथिला छोड़ कर चल दिये, तब मिथिला में सर्वत्र विलाप, रूदन... शोक... संताप का कोलाहल व्याप्त हो गया था। प्रजा का राजा के प्रति अपार प्रेम था ।
उस समय देवराज इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान के आलोक में नमि राजर्षि को मिथिला छोड़ कर जाते हुए देखा । इन्द्र ने ब्राह्मण का रूप किया और जा कर राजर्षि को मिले । प्रणाम कर पूछा :
किं नु भो अज्ज मिहिलाए कोलाहलगसंकुला ।
सुच्चंति दारुणा सदा पासएसु गिहेसु अ ॥ ९/७ हे राजर्षि, आज मिथिला में, महलों में और गृहों में सर्वत्र रूदन-विलाप आदि शब्द क्यों सुनायी दे रहे हैं ?
राजर्षि ने कहा : हे ब्राह्मण, उद्यान में रहा हुआ मनोरम वृक्ष, प्रचंड आंधीतूफान से गिर जाता है तब उस पर बैठे हुए पक्षी दुःखी होते हैं, आश्रयहीन होते हैं, इसलिए वे क्रंदन-रूदन करते हैं ! यानी लोग अपना स्वार्थ नष्ट होने से रोते | एकत्व-भावना
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