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प्रश्न पूछता है । नमि राजर्षि समभाव से कैसे ज्ञानगर्भित प्रत्युत्तर देते हैं, कल कुछ प्रश्नोत्तर आपको सुनाये थे । जो शेष प्रश्नोत्तर हैं, वे आज सुनाता हूँ। एकाग्र मन से सुनना, बाद में उन पर चिंतन करना है।
इन्द्र ने कहा : राजन, बड़े-बड़े यज्ञ करा कर, श्रमण-ब्राह्मण वगैरह को भोजन करा कर, गौ आदि का दान देकर, इष्ट-मिष्ट और प्रिय विषयसुखों को भोगकर, स्वयं यज्ञादि करने के बाद त्यागमार्ग पर जाना । नमि राजर्षि ने कहा :
जो सहस्सं सहस्साणं, मासे मासे गवं दए । तस्सावि संजमो सेओ अदितस्सावि किंचणं ॥ ९/४० हे ब्राह्मण, कोई मनुष्य प्रतिमास १०-१० लाख गायों का दान देता हो, और कोई मनुष्य एक गाय का भी दान नहीं देता हो, तो भी हिंसा वगैरह पापों के परिहाररूप संयम अति श्रेष्ठ होता है !'
इन्द्र ने कहा : ठीक है आपकी बात, परंतु गृहस्थाश्रम भी घोर दुष्कर है, उसका त्याग कर अन्य संन्यासाश्रम की क्यों इच्छा करते हो ? हे राजन्, गृहस्थाश्रम में रहते हुए पौषधव्रत में निरत रहें ।
नमि राजर्षि ने कहा : मासे मासे उ जो बालो, कुसग्गेणं तु भुंजए । न सो सुअक्खायधम्मस्स, कलं अग्घइ सोलसिं ॥ ९/४४ हे ब्राह्मण, कोई अज्ञानी मनुष्य, एक-एक महीने के उपवास के पारणे में अति अल्प आहार ग्रहण करता हो, फिर भी वह तीर्थंकर-प्रणीत मुनिधर्म के सोलहवें भागसमान भी नहीं होता है । तीर्थंकरों ने मुनिधर्म को ही मुख्य रूप से मुक्तिमार्ग बताया है, गृहस्थाश्रम को नहीं । ___ इन्द्र ने कहा : हे राजन्, सोना, रत्न, मणि-मोती, मूल्यवान वस्त्र, वाहन, धनभंडार इत्यादि की वृद्धि करके अणगार बनना ।
नमि राजर्षि ने कहा : सुवण्णस्पस्स, उ पव्वया भवे, सिआ हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि इच्छा हु आगाससमा अणंतिया ॥ ४/४८
हे ब्राह्मण, मेरुपर्वत जैसे सोना-चांदी के असंख्य पहाड़ मिल जायं, फिर भी तृष्णातुर मनुष्य को थोड़ा भी संतोष नहीं होता है। क्योंकि इच्छा आकाश
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शान्त सुधारस : भाग १
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