Book Title: Shant Sudharas Part 01
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana

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Page 293
________________ भी नहीं हूँ । इस प्रकार की समझदारी आने पर नया कर्मबंध नहीं होता है । और, इस प्रकार का आध्यात्मिक चिंतन, मोहशत्रु पर पहला प्रहार है । शुभ किरिया आचरण आचरे, धरे न ममताभाव, नूतन बंध होय नहीं इणविध, प्रथम अरि-शिर घाव । बहुत से मनुष्य - जन्म मिले, अनंत बार मनुष्य बने, परंतु यह आध्यात्मिक चिंतन नहीं किया, इस मनुष्य-जीवन में वह भूल दोहराना नहीं है । इस जीवन में आध्यात्मिक दृष्टि पाकर, मोह की छाती में आत्मा के एकत्व का तीर मारना ही है । मोह-ममत्व को नष्ट करना ही है । वार अनन्त चूकीया चेतन ! इण अवसर मत चूक, मार निशाना मोहराय की छाती में, मत उक ! एकत्व से ही परम सुख की ओर : 'अनेकता में दुःख है, एकत्व में ही सुख है । परम सुख पाने का मार्ग भी एकत्व की आराधना का ही हैं, ऐसा दृढ़ निश्चय ही महात्माओं को कठोर उपसर्गों में विचलित नहीं होने देता। अनुकूल उपसर्गों में भी विचलित नहीं होने देता । श्रीराम के चित्त में, श्रमण बनने के बाद ऐसा ही 'एकत्व' का, आत्मा के एकत्व का दृढ़ निश्चय हो गया था। सीताजी के प्रति या लक्ष्मण के प्रति थोड़ासा भी ममत्व नहीं रहा था। सीता का रूप और लक्ष्मण का रूप 'ये कर्मजन्य हैं, ये अवस्थाएँ अवास्तविक हैं, असत् हैं...' यह सत्य आत्मसात् हो गया था । इसलिए सीतेन्द्र के अनुकूल उपसर्ग में वे चलायमान नहीं हुए थे । I वैसे भी महामुनि श्रीराम अप्रमत्त भाव से घोर और उग्र तपश्चर्या करते थे एक महीने के, दो महीने के, तीन-चार महीने के उपवास करते थे। कभी जंगलों में वे पर्यंकासन' से रहते थे, कभी भुजाओं को प्रलंबित कर खड़े रहते थे, कभी अंगुष्ठ पर तो कभी पैरों की एड़ी पर खड़े रहकर आत्मध्यान में रहते थे । विहार करते, श्रीराम - महामुनि 'कोटिशिला' नाम की जगह पर पहुँचे । श्रीराम - महामुनि को अनुकूल उपसर्ग : 'त्रिषष्टि- शलाका पुरुष - चरित्र में श्रीराम - महामुनि को कैसा अनुकूल उपसर्ग, सीतेन्द्र द्वारा हुआ था, उसका हृदयस्पर्शी वर्णन पढ़ने को मिलता है । आपको सुनाता हूँ । सीता ने साध्वी बनकर, ज्ञान- दर्शन - चारित्र की आराधना कर, देवगति पायी थी । वे बारहवे देवलोक में देवेन्द्र बने थे। उनके मन में से अभी भी रामस्नेह 1 एकत्व - भावना Jain Education International For Private & Personal Use Only - २७७ www.jainelibrary.org

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