Book Title: Shant Sudharas Part 01
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana

View full book text
Previous | Next

Page 291
________________ पुद्गल-गीता में कहा है - जीव अस्पी, स्प धरत ते परपरिणतिपरसंग परपरिणतिसंग' यानी परपुद्गलसंग । जब तक आत्मा कर्मों के बंधन में होगी तब तक वह रूपी ही रहेगी । रूप पुद्गल का गुण है । शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श - ये पाँचों पुद्गल के गुण है। पुद्गल खाणो, पुद्गल पीणो, पुद्गलहुंथी काया । वर्ण गंध रस फरस सहुए, पुद्गलहुं की माया ॥ यह सब पुद्गल की माया है ! आत्मा को पुद्गल से कोई मतलब नहीं है। फिर भी, जीव पुद्गल के अनादिकालीन संग की वजह से पुद्गल के गुणों को अपने गुण मान रहा है। मेरा रूप, मेरा स्पर्श, मेरी गंध, मेरा शब्द... ऐसा मानता है, ऐसा बोलता है और ऐसा व्यवहार करता है। अपने विशुद्ध आत्मस्वरूप का उसे ज्ञान ही नहीं है । एकत्व-भावना में आत्मा के एकत्व का ज्ञान करना है। विशुद्ध आत्म-स्वरूप का ध्यान करना है । तब पुद्गल के रूप-रसादि का ममत्व छूट जायेगा । शुद्ध सोने की तरह आत्मा स्वरूप में चमक उठेगी। कर्मवश जीव के अनेक रूप : कर्मवशतो भवति रूपमनेकधा । इस विराट विश्व में जीवों के विविध रूप जो दिखायी देते हैं, वे कर्मों की वजह से हैं । कर्म की वजह से ही जीव देव का रूप लेता है, नरक का रूप धारण करता है, मनुष्य का और जनावर का रूप धारण करता है । जड़ पुद्गल चेतन कुं जग में, नाना नाच नचावे !' कर्म, जड़ पुद्गल है । वह कर्म चेतन-आत्मा को विविध नाच नचाता है। तीन भवन में सभी प्रकार का व्यवहार कर्मपदगल की वजह से ही है । मोक्ष में कर्म नहीं है, तो एक भी विकार वहाँ नहीं है ! एक भी दाग वहाँ आत्मा पर नहीं होता है । शुद्ध सोने जैसी वहाँ आत्मा होती है। तीन भुवन में देखीये सहु, पुद्गल का व्यवहार, पुद्गल विण कोउ सिद्धस्प में दरसत नहीं विकार । इस दृष्टि से यदि आत्मा के एकत्व की भावना भाना है, तो पुद्गलजन्यकर्मजन्य सभी रूपों से भिन्न आत्मा का चिंतन करना होगा । जैसे कि - - मैं देव नहीं हूँ, मैं देवी नहीं हूँ । - मैं पुरुष नहीं हूँ, मैं स्त्री नहीं हैं। एकत्व-भावना २७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302