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पश्य काञ्चनमितरपुद्गल - मिलितमञ्चति कां दशाम् । केवलस्य तु तस्य रूपं विदितमेव भवादशाम् ॥ ५॥ एवमात्मनि कर्मवशतो, भवति स्पमनेकधा । कर्ममलरहिते तु भगवति, भासते काञ्चनविधा ।। ६ ।। ज्ञानदर्शन चरणपर्यव - परिवृत्तः परमेश्वरः । एक एवानुभवसदने, स रमतामविनश्वरः ।। ७॥ रुचिरसमतामृतरसं - क्षण- मुदितमास्वादय मुदा । विनय विषयातीतसुखरस - रतिरुदञ्चतु ते सदा ॥ ८ ॥ उपाध्यायश्री विनयविजयजी 'शान्तसुधारस' ग्रंथ में चौथी 'एकत्व - भावना' के गेय काव्य में फरमाते हैं :
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तुम्हें तो मालूम ही है ना ? सोने जैसी कीमती धातु भी यदि हलकी धातु में मिल जाती है तो अपना निर्मल रूप खो बैठती है। वैसे ही आत्मा का परभाव में अपना निर्मल रूप खो गया है ।
६. परभाव के प्रपंच में पड़ी हुई आत्मा, न जाने कितने स्वांग रचाती है । पर वही आत्मा यदि कर्मों के मैल से मुक्त हो जाए तो शुद्ध सोने की भाँति चमक उठती है ।
७. ऐसे परमेश्वर (आत्मा) सदैव ज्ञान - दर्शन और चारित्र के भावों से परिपूर्ण होते हैं । वे ही मेरे स्वानुभव के मंदिर में रममाण रहो ।
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८. तेरे हृदय में शांतरस का आविर्भाव हुआ है, तू जरा उसका आस्वाद तो ले ! ऐन्द्रिक सुखों के उपभोग - रस से दूर-दूर वैसे शान्तरस में तेरा मन आनन्द को प्राप्त करेगा ।
अपना रूप खोजना होगा :
आत्मा का विशुद्ध रूप 'शुद्धात्मद्रव्यमेवाहं प्रगट नहीं है । तब मन में प्रश्न
उठता है 'कहाँ वो विशुद्ध रूप खो गया है ? कहाँ वो विशुद्ध आत्मा खो गयी है ?' उसका उत्तर है : परभाव में, पुद्गल-भाव में उस आत्मा का विशुद्ध रूप खो गया है, छिप गया है । यह बात समझाने के लिए ग्रंथकार ने सुवर्ण का उदाहरण दिया है । पित्तल धातु में यदि सोना मिल जाता है तो सोना अपना रूप खो देता है । वैसे पुद्गल-भाव में आत्मा ने अपना 'रूप' खो दिया है । वैसे आत्मा का रूप है ही नहीं, वह तो 'अरूपी' है, रूप तो पुद्गल का होता है ! पुद्गल के संग आत्मा रूपी' कहलाती है ।
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शान्त सुधारस : भाग १
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