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हैं ? भगवान महावीर को भी बारह वर्ष तक कितने सताये थे दुनिया ने ? देवों ने सताये थे, मनुष्यों ने भी सताये थे ! परंतु जो आत्मज्ञानी होते हैं वे शरीर के ममत्व से मुक्त होते हैं । वे सदैव समतामृत के आस्वाद में मग्न होते हैं! भले कोई उनके शरीर की चमड़ी को उतारे, अथवा सिर पर जलते अंगार भरे । भले ही कोई उन पर मुष्ठिप्रहार करे अथवा गालियों की ब्योछार करे । वह तो समझता है 'ये लोग अंधे हैं, वे कुछ देखते ही नहीं ! उन पर करुणा ही करना है । अंधों पर क्रोध क्या करना ?' वैसे तो आत्मज्ञानी विकल्पों से मुक्त होते हैं । वे राग-द्वेष के फालतू विचार करते ही नहीं ! वे समझते हैं : 'निर्विकल्प मुझ रूप है, द्विधाभाव न सुहाई !'
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आत्मज्ञानी के चिंतन में, उनकी अन्तर्यात्रा में विकल्पों को कोई स्थान ही नहीं है । उनकी अन्तर्यात्रा में द्वैत को जगह ही नहीं होती है
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युं बहिरातम छांड के
अंतर आतम होई,
परमातम मति भावीए, जहाँ विकल्प न कोई ।
उस आत्मज्ञानी की अन्तर्यात्रा में एक मात्र परम आत्मा ही होता है। दूसरा कोई विकल्प नहीं होता है। उसका मन, उसकी मति, बुद्धि... सब कुछ परमात्ममय बन जाता है । परमात्मभाव की वासना दृढ़ हो जाती है । परिणामस्वरूप आत्मा परमात्मा बन जाती है ।
सोमें या दृढ़ वासना, परमातम पद हेत,
इलिकाभ्रमरी ध्यानगत, जिनमति जिनपद देत ।
जिस प्रकार पिल्लू (इलिका) भ्रमरी का ध्यान करती है तो वह भ्रमरी बन जाती है, वैसे परमात्मा का ध्यान करते-करते अन्तरात्मा परमात्मा बन जाता है। परमात्मभाव में वासना बन जानी चाहिए ! दृढ़ वासना बन जानी चाहिए । परमात्मभाव में वासना दृढ़ कैसे बने ?
प्रश्न : आपने कहा वह सिद्धान्त की दृष्टि से सही है, परंतु परमात्मभाव में वासना बनती ही नहीं । वैषयिक सुखों में ही वासना दृढ़ है ।
उत्तर: मैं इन्द्रियों से, शरीर से भिन्न हूँ, मेरे से शरीर - इन्द्रियाँ भिन्न है । मैं तो विशुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा ही हूँ ।' यह शुद्ध भावना ही परमात्म-पथ की दीपिका है ! 'समाधिशतक' में कहा है
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'देहादिक से भिन्न में, मो से न्यारे तेहु, परमातम - पथ दीपिका, शुद्ध भावना एहु ।'
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शान्त सुधारस : भाग १
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