Book Title: Shant Sudharas Part 01
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana

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Page 300
________________ मूकी नर-नारी सवि संगत, प्रणमे तस सुरराजो.... ७. हे आत्मन् ! तू अपना ही ध्यान कर ! अपनी आत्मा का ध्यान कर ! क्योंकि ध्यान में एकत्व ही, अकेलापन ही आवश्यक होता है। ध्यान में दूसरे का संयोग विक्षेप करता है । तू सोचना कि इस संसार में तू जहाँ-जहाँ जन्मा, वहाँ अकेला ही जन्मा है और मरा भी अकेला है । कोई साथ आया नहीं है और आनेवाला भी नहीं है । 1 इस विश्व में विष्णु - शिव वगैरह देव भी, दूसरे देव और मनुष्य, सभी अकेले ही आये और इस संसार में विविध खेल रचाकर अकेले ही चले गये । ये सभी अकेले गये, किसी को साथ नहीं ले गये । उनकी समृद्धि भी उनके साथ नहीं गयी वे अपने शुभाशुभ कर्म ही साथ ले गये । खाली हाथ चले गये । हे दुनिया के लोगों, विशाल परिवार देखकर खुश नहीं होना । क्योंकि वह परिवार तुम्हें कोई काम का नहीं है । तुम्हारी सारी चिंता व्यर्थ जानेवाली है । जैसे आकाश को आलिंगन देना व्यर्थ होता है, कुछ मिलता नहीं है, वैसे विशाल परिवार परलोक जाने पर उपयोगी होनेवाला नहीं । इसलिए हे भव्य लोगों, तुम शान्तसुधारस के सरोवर में स्नान करते रहो । पाँच इन्द्रियों के विषयरूप जहर को दूर करो । एकत्व - भावना का चिंतन कर, आप ही आपको तारो । हिंसा - असत्यादि पापों के द्वारा यह जीव अनेक प्रकार के रोगों का भाजन बनता है । और जिस प्रकार पानी के बिना मछली दुःखी होती है वैसे अकेला ही जीव बेचारा दुर्गति में दुःख पाता है । इस प्रकार एकत्व - भावना से भावित हो कर नमिराजा, मिथिला का राज्य छोड़कर, अंतःपुर का त्याग कर अणगार बने थे, प्रत्येक बुद्ध बने थे । इन्द्र ने उनके वैराग्य की परीक्षा की थी, नमि राजर्षि उस परीक्षा में उत्तीर्ण हुए थे । देवेन्द्र उनके चरणों में वंदना कर, वापस देवलोक में गया था । उपसंहार : 1 'एकत्व - भावना' का यह गीत याद कर लोगे और गुनगुनाते रहोगे तो मजा आ जायेगा । वैसे जब समय मिले, इन प्रवचनों को पढ़ते रहना । संसार में मनुष्य को किसी न किसी प्रकार की अशान्ति बनी रहती है, उस समय ये प्रवचन आपको अवश्य शान्ति - समता प्रदान करेंगे । आप शान्ति समता का आस्वाद करते ही रहे - ऐसी शुभ कामना के साथ प्रवचन पूर्ण करता हूँ । * २८४ शान्त सुधारस : भाग १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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