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अन्तर्यात्रा में यह चिंतन बार-बार करना है । करते रहो यह चिंतन । ६/८ महीना यह चिंतन करने के बाद मुझे बताना कि परमात्मभाव की वासना जगी या नहीं ? एक बार इस वासना को जगने दो! फिर वह दृढ़ होती जायेगी। चिंतन तो करना ही होगा । भेदज्ञान का चिंतन करना होगा। अध्यात्ममार्ग में यह चिंतन अनिवार्य होता है । इस चिंतन से वैषयिक वासना शिथिल हो जायेगी। पुद्गलविषयक अभिनिर्वश-दुराग्रह छूट जायेगा । 'मुझे ऐसे ही शब्द-रूपरसादि चाहिए' - ऐसा दुराग्रह नहीं रहता । आत्मज्ञानी-अन्तरात्मा को तो अपने गुणों का भी अभिमान नहीं रहता, तो फिर विषयों का, पुद्गलों का आग्रह तो कैसे रह सकता है ?
अभिनिवेश पुद्गलविषय ज्ञानी कुं कहाँ होत ?
गुण को भी मद मिट गयो, प्रकटत सहज उद्योत । एकत्व-भावना से ही समतासुख :
प्रतिदिन एकत्व-भावना का चिंतन करते रहो । चित्त समतासुख का अनुभव करेगा । इस दृष्टि से आत्मा के एकत्व का विस्तार से विवेचन किया है, निश्चयदृष्टि से समझाया है और व्यवहारदृष्टि से भी समझाया है । ___पंडित श्री सकलचंद्रजी ने एकत्व-भावना को भाववाही काव्य में प्रवाहित की है । उस काव्य को गाकर, उस पर कुछ चिंतन कर, आज एकत्व-भावना का विवेचन पूर्ण करेंगे।
ए तुही आपकुं तुंही ध्याओजी, ध्यानमांही अकेला, जिहाँ तिहाँ तु जाया अकेला, जावेगा भी अकेला....१. हरिहर प्रमुखा सुर-नर जाया ते भी जगे अकेला, ते संसार विविध पर खेली गया ते भी अकेला....२. कुछ भी लीना साथ न तेणे, ऋद्धि गई नवि साथे, निज-निज करणी ले गये ते, धन बिन ठाले हाथे....३. बह परिवारे न राचो लोगों, मुधामल्यो सहु साथो, ऋद्धि मुधा होशे सब चिंता, गगन तणी जिम बाथो....४. शांतसुधारस सर में झीलो, विषय-विष पंच निवारो, एकपणुं शुभ भावे चिंती, आप आपकुं तारो....५. हिंसादिक पापे ए जीवो, पामे बहुविध रोगो, जल विण जिम माछो अकेलो, पामे दुःख परलोगो....६.
एकपणुं भावी नमिराजा, मूकी मिथिला राजो, । एकत्व-भावना
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