Book Title: Shant Sudharas Part 01
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana

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Page 297
________________ हम जो ज्ञाताभाव और दृष्टाभाव की बात करते हैं, इसका मतलब क्या है ? इसका यही अर्थ है कि हम इन्द्रियों के साथ चेतना को जोड़े नहीं । वैसे, इन्द्रियों को चौबीस घंटे बंध रखना संभव नहीं है । और इन्द्रियों की उपलब्धि कर्म के क्षयोपशम से होती है। हम इन्हें बंद क्यों करें ? हमें वह अभ्यास करना होगा कि हम केवल इन्द्रियों का उपभोग करें, राग-द्वेष न करें । प्रश्न: क्या यह संभव है ? उत्तर : हाँ, अन्तर्मुखता आने पर संभव है । अन्तर्मुख मनुष्य के लिए यह स्थिति सहज संभव होती है । फिर छलना- प्रवंचना नहीं रहती है । प्रश्न : अन्तर्मुख कैसे बन सकते हैं ? उत्तर : अन्तर्यात्रा से । बहिरात्म दशा से मुक्त होकर अन्तरात्म दशा में जाना होगा । आत्मज्ञानी बनना होगा । राचे साचे ध्यान में, जाचे विषय न कोई । नाचे राचे मुगतिरस, आतमज्ञानी सोई ॥ विषयों से विमुख बन कर आत्मध्यान में ही जिसकी रुचि हो जाती है, एक मात्र मुक्ति - मोक्षं' ही जिसका लक्ष्य हो जाता है, वह आत्मज्ञानी कहलाता है । ऐसा आत्मज्ञानी ही परमात्मा को अपने अनुभव - मंदिर में रखता है । ग्रंथकार ऐसी भावना करते हैं --- 'परमेश्वरः एक एवानुभव सदने रमतामविनश्वरः ।' ऐसी अन्तरात्मा ही 'समता-सुधा' का आस्वाद करती है। उसको ही विषयातीत 'समतारस' में प्रेम जाग्रत होता है । समता - सुधा का आस्वाद करें : आत्मज्ञानी पुरुष, जब अन्तरात्म दशा में मस्त बन कर, समता - सुधा का आस्वाद करता है, तब उसका जीवनव्यवहार ही बदल जाता है । इस संसार के साथ, संसार के रागी -द्वेषी लोगों के साथ उसका कोई संबंध ही नहीं रहता है ! दुनिया की निगाहों में आत्मज्ञानी उन्मत्त सा दिखता है। आत्मज्ञानी की दृष्टि में दुनिया अंधी लगती है । 'समाधिशतक' में कहा गया है। - जग जाणे उन्मत्त यह, यह जाणे जग अंध, ज्ञानी को जग में रह्यो, युं नहीं कोई संबंध | कितनी सच्ची बात कह दी है उपाध्यायश्री यशोविजयजी ने ! ज्ञानी पुरुषों को, आत्मज्ञानी पुरुषों को 'उन्मत्त' 'पागल' समझकर जगत ने उनको कितने सताये एकत्व - भावना Jain Education International For Private & Personal Use Only २८१ www.jainelibrary.org

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