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रमणता ज्ञान-दर्शन-चारित्र इत्यादि आत्मगुणों में होनी चाहिए ।
यदि चेतना इन्द्रियों के साथ नहीं जुड़ेगी तो इन्द्रिय विषयों को ग्रहण नहीं करेंगी । इसी को अनध्यवसाय' कहते हैं । एक उदाहरण से यह बात समझाता हूँ । एक मनुष्य को डायमंड खरीदना है । वह बाजार में गया । बाजार में सैंकड़ों दुकाने हैं । उनमें हजारों प्रकार की वस्तुएँ उपलब्ध है । मनुष्य उन वस्तुओं को देखता चला जाता है; परंतु वह जौहरात की दुकान पर रुकता है, हीरा खरीद लेता है। हीरे के अलावा भी वह अनेक वस्तुओं को देखता है, परंतु वह देखना, न देखने जैसा ही रहता है । जिसके साथ अध्यवसाय जुड़ा उसे देखा, ले लिया
और सब कुछ अनदेखा-सा रह गया । ___ हम वस्तु के साथ उतनी ही चेतना को जोड़ें, जितनी उस वस्तु को जानने के लिए आवश्यक हो । उसके साथ ममत्व की चेतना को नहीं जोड़ें।
* हम शब्द सुने, परंतु उस पर राग-द्वेष न करें । * हम रूप देखें, पर उसके प्रति राग-द्वेष न करें। * हम खाना खायें, पर उसके प्रति राग-द्वेष न करें । * हम गंध ले, परंतु उसके प्रति राग-द्वेष न करें ।
* हम स्पर्श करें, पर उसके प्रति राग-द्वेष न करें। __ हमें ऐसी साधना-आराधना करनी होगी कि ज्ञान ज्ञान रहे, उसके साथ रागद्वेष न जुड़े । ज्ञान और मोह को पृथक् करते रहें । इन्द्रियाँ अपना-अपना काम करेगी, पर उसके साथ ममत्व नहीं जुड़ेगा, ज्ञानदशा रहेगी। इन्द्रियाँ और आत्मरमणता :
ज्ञानदशा की, ज्ञानोपयोग की सिर्फ बातें नहीं करना है, अभ्यास करना है । जीवनपर्यंत अभ्यास करना है। इन्द्रियाँ सदैव अपने विषयों से विमख नहीं रह सकतीं । इन्द्रियों का सदैव दमन भी नहीं हो सकता । हाँ, इन्द्रियों के साथ मन को ज्यादा समय नहीं जोड़ना है । चेतना को नहीं जोड़ना है । एक दृष्टांत से यह बात समझाता हूँ।
बंबई जैसे बड़े शहरों में आपने पानी की बड़ी पाईपलाईन' देखी होगी । उसके साथ गंदे पानी की गटरलाईन (अंडरग्राउन्ड) भी चलती है। यानी पानी का नाला और मल का नाला – दोनों साथ-साथ चलते हैं। कभी-कभी नाला बीच में टूटता है... तो जल और मल का मिश्रण हो जाता है ! यह गड़बड़ जनस्वास्थ्य के लिए खतरा बन जाती है । वैसे हम जल और मल का नाला अलग अलग चलने दें । इन्द्रियों को अपना काम करने दें, चेतना को ज्ञान-दर्शन की, आत्मा की रमणता में रमने दें । इसी को अध्यात्म की आराधना कहते हैं ।
शान्त सुधारस : भाग १
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