Book Title: Shant Sudharas Part 01
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana

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Page 283
________________ में जाता हूँ तो भी अकेला और स्वर्ग की सैर करता हूँ तो भी मैं अकेला ही । मनुष्यगति में जन्म लेता हूँ तो भी मैं खुद अकेला और पशुयोनि में जाऊँ तो भी मैं स्वयं ही! आत्महित भी अकेले ही कर लेना है : __ जो अनंत-अनंत समय बीत गया इस संसार में परिभ्रमण करते हुए, उस अनंतकाल में जो कोई सुख-दुःख मैंने सहे वो भी अकेले ही । मैं यानी आत्मा। मैं अकेला हूँ, असहाय हूँ, यह वास्तविकता है और मुझे इस वास्तविकता का सरसरी तौर पर स्वीकार कर लेना चाहिए । इस वास्तविकता का मैंने स्वीकार नहीं किया और अनेकता के ख्याल में खो गया। अनेकता की जाल में उलझता ही रहा - 'अकेले में दुःख, अनेक में सुख, यह विचार मेरा दृढ़ रहा है, इसलिए एक में से अनेक होने का प्रयत्न किया है और किये जा रहा हूँ। ___ 'विशाल परिवार हो तो सुख, विशाल मित्र-मंडल हो तो सुख, बड़ा अनुयायी वर्ग हो तो सुख, बस ! भीड़ में ही सुख और आनंद की कल्पना बनायी और उसमें ही उलझता रहा । परिणाम-स्वरूप दुःख और अशान्ति का बोझ ढोता रहा । हालाँकि समूह-जीवन में कुछ-एक सुख, कुछ आनंद भी मैने पाया है, पर वो सुख दीर्घकाल तक टिका नहीं, वो आनन्द ज्यादा समय रहा नहीं। वो सब अल्पकालीन सिद्ध हुआ है ।। __ मुझे एकाकी होना नहीं है, फिर भी कभी न कभी तो एकाकी बनना ही होगा। तब क्या मुझे दुःख नहीं होगा ? वेदना नहीं होगी? अकेले जब मरना होगा तब क्या मेरी स्वस्थता बरकरार बनी रहेगी ? समता और समाधि में लीन हो जाऊँगा? मैं अकेला, कौन-सी गति में जाऊँगा? यह भय मुझे व्याकुल तो नहीं बना डालेगा ? इसलिए अब मैं इस परम सत्य का स्वीकार करता हूँ - 'मैं अकेला हूँ, मुझे अकेले ही जन्म-मरण करने हैं, अकेले ही चार गति में और ८४ लाख योनि में भटकना है, तो फिर क्यों न मैं अकेले ही मेरा आत्महितआत्मकल्याण साध लूँ? क्यों न मैं अकेला ही महान् धर्म-पुरुषार्थ कर लूँ ?' अब आज में चार निर्णय कर लेता हूँ - १. मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, मुझे किसी का सहारा नहीं है, ऐसी शिकायत अब मैं कभी भी नहीं करूँगा। २. मैने तो उन्हें अपना मानकर, उनके ढेरों काम किये, पर उन्होंने मेरी कोई सहायता नहीं की, ऐसी मनोव्यथा अब मैं कभी नहीं करूँगा । ३. 'धर्मआराधना तो मैं करूँ, पर मुझे कोई साथी चाहिए, कोई सहयोगी चाहिए, & एकत्व-भावना २६७ & Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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