Book Title: Shant Sudharas Part 01
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana

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Page 284
________________ साथ-सहयोग के बिना धर्मआराधना मेरे से नहीं होगी, ऐसी दलीलें मैं नहीं करूँगा। ४. एकोऽहं- मैं अकेला हूँ - इस सत्य को आत्मसात् करने के लिए निरंतर एकत्व-भावना से भावित बना रहँगा । आत्मा की अद्वैतभाव की मस्ती में जीनेवाले मिथिला के नमि राजर्षि और अवंती के राजा भर्तृहरि वगैरह जब स्मृति की शीप में मोती बनकर उभरते हैं, तब आत्मानन्द की अकथ्य अनुभूति होती है । अकेलेपन की दीनता-हताशा चूर-चूर हो जाती है । पर-सापेक्षता की ऊँची-ऊँची कगारे टूट गिरती हैं । रहना सब के बीच, पर सब से जुदा !' ऐसे जीने का मजा मैने चख लिया है । किसी गिरिमाला के उत्तुंग शिखर पर, गगनचुंबी भव्य जिनमंदिरों की गोद में, अकेले आसन जमाकर, हवा की सनसनाहटों के और पक्षियों के मधुर कूजन के अलावा जहाँ और कुछ भी न हो, मंदिर का पूजारी भी जब अपने घर चला गया हो, ऐसे में जनरहित नीरव शांति में, परमात्मा के सान्निध्य में, एकत्व और समत्व का निजानंद मैंने पाया है । और, तीव्र संवेदनाओं से सिक्त हुआ हूँ । अनेकता के कोलाहल से मुक्त होकर दूर दूर एकत्व के क्षीरसमुद्र में डुबकियाँ लगाने की मस्ती मैंने पायी है। अब अनेकता में से मिलनेवाले सुख मुझे नहीं चाहिए । अनेकता में से पैदा होनेवाला आनंद मुझे नहीं भायेगा । पर-सापेक्ष जीवन अब नहीं जीना है । अब तो इस छोटी-सी जिन्दगी में आत्मा के अद्वैत-एकत्व की जी भरकर साधना कर लेना है । आत्मा का स्थायी हित खोज लेना है । नित्य और शाश्वत् गुणसमृद्धि पा लेना है। ___ आत्मसाक्षी से ऐसा निर्णय कर लेना है और इस निर्णय को दृढ़ करने के लिए परमात्मा से प्रार्थना करना है । लव-कुश का गृहत्याग : जब जीवन चंचल है, जीव अशरण है, संसार निर्गुण-असार है और आत्मा अकेली है, तब प्रबुद्ध मनुष्य को शाश्वत् आत्मकल्याण ही साध लेना चाहिए । इस विषय में आपको रामायणकालीन एक अद्भुत घटना सुनाता हूँ। ___ अयोध्या के राजमहल में अचानक लक्ष्मणजी की मृत्यु हो गई थी । अन्तःपुर की रानियाँ घोर आक्रन्द करने लगी थी । रानियाँ और दासियों का करुण विलाप सुनकर श्रीराम वहाँ पहुँच गये और बोले : तुम लोग यह क्या कर रहे हो ? मैं जिन्दा हूँ, मेरा भाई लक्ष्मण भी जिन्दा है । उसको कोई रोग हुआ है, वह मूछित शान्त सुधारस : भाग १ २६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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