Book Title: Shant Sudharas Part 01
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana

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Page 279
________________ जैसी अनंत होती है । इतना ही नहीं, पुढवी साली जवा चेव हिरण्यं पसुभिस्सइ । पडिपुण्णं नालमेगस्स, इइ विज्जा तवं चरे ॥ ९/४९ हे ब्राह्मण, भूमि, जव आदि धान्य, सोना आदि धनसंपत्ति, पशुधन आदि वैभव, एक जीवात्मा की इच्छापूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होता है । ऐसा समझकर, बारह प्रकार के तप करने चाहिए। ___ इन्द्र ने कहा : हे राजन्, आश्चर्य की बात है कि आप विद्यमान अद्भुत भोगों का त्याग कर, अविद्यमान स्वर्ग के सुखों को चाहते हो ! अप्राप्त भोगों की अनन्त इच्छाओं से हत-प्रहत हो रहे हो ! आप विवेकी हैं, आपको अप्राप्त भोगों की इच्छा से, प्राप्त भोगों का त्याग नहीं करना चाहिए !' नमि राजर्षि ने कहा : सल्लं कामा, विसं कामा, कामा, आसीविसोवमा । कामे पत्थयमाणा य अकामा जंति दुग्गइं ॥ ९/५३ अहे वयइ कोहेणं माणेणं अहमा गई । माया गइ पडिग्घाओ लोहोओ दुहओ भयं ॥ ९/५४ हे ब्राह्मण, शब्द-रूप-रस-गंध और स्पर्श के कामसुख शल्यरूप हैं, काँटे जैसे हैं, जहर जैसे हैं और काले नाग जैसे हैं । कामभोगों की इच्छा करने मात्र से जीव नरक-तिर्यंचगति में उत्पन्न होते हैं, कामभोग भोगने की बात तो दूर रही ! __ हे ब्राह्मण, क्रोध से नरकगति मिलती है, मान-अभिमान से नीच गति मिलती है, माया से सद्गति का नाश होता है और लोभ से इस भव में और परभव में अनेक भय उत्पन्न होते हैं । देवराज इन्द्र को नमि राजर्षि का वैराग्य ज्ञानमूलक हैं - इस बात की प्रतीति हो गई । उसको अति हर्ष हुआ । उसने अपना इन्द्र का रूप प्रगट किया और नमि राजर्षि के चरणों में भावपूर्वक वंदना कर स्तुति की। देवराज इन्द्र, राजर्षि की स्तुति करता है : हे राजर्षि, आपने क्रोध को जीत लिया है, मान-अभिमान को हरा दिया है, माया का विसर्जन किया है और लोभ को स्वाधीन कर लिया है ! हे राजर्षि, अहो ! आपकी कैसी श्रेष्ठ सरलता है ! कैसी अपूर्व नम्रता है ! | एकत्व-भावना २६३ | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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