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हैं, मेरी प्रव्रज्या के कारण नहीं रोते !'
देवेन्द्र ने कहा : राजर्षि, आप मिथिला की ओर देखिए तो सही । मिथिला आग में जल रही है, आपका अन्तःपुर-रानीवास भी जल रहा है... आप क्यों उस तरफ देखते नहीं ? राजर्षि समताभाव से बोले -
सुहं वसामो जीवामो जेसिमो नत्थि किंचणं । मिहिलाए डज्झमाणीए न मे उज्झइ किंचणं ॥ ९/१४ हे ब्राह्मण, हम सुख से जीते हैं, सुख से रहते हैं, मेरा कुछ भी नहीं है ! मिथिला जल रही है, मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है !
चत्तपुत्तकलत्तस्स निव्वावारस्स भिक्खुणो । पिअंण विज्जई किंचि अप्पिअंपि ण विज्जई ॥ ९/१५ बहुं खु मुणिणो भई, अणगारस्स भिक्खूणो । सव्वओ विप्पमुक्कस्स एगंतमणुपस्सोओ॥ ९/१६ हे ब्राह्मण, स्त्री-पुत्र वगैरह स्वजनों का त्याग करनेवाले और सभी पापप्रवृत्ति का परिहार करनेवाले भिक्षु को कोई वस्तु प्रिय नहीं होती है, कोई वस्तु
अप्रिय नहीं होती है । उनको सर्वत्र समभाव-समत्व होता है । ___ “हे ब्राह्मण, परिग्रह से सर्वथा मुक्त, अणगार ऐसे भिक्षु को मैं अकेला ही हूँ, ऐसी एकत्व की मस्ती में बहुत सुख होता है ।"
तब इन्द्र ने कहा : हे राजर्षि, ठीक है आपकी बात, परंतु आप किल्ला-प्राकार बनवा कर, गोपुर और अट्टालिकाएँ, युद्ध करने के स्थान, शस्त्रागार इत्यादि बनवा कर, सब कुछ व्यवस्थित करवा कर बाद में जाना । राजर्षि ने प्रत्युत्तर दिया - सद्धं च नगरं किच्चा, तव संवरमग्गलं । खंतिनिउण पागारं तिगुत्तं दुप्पधंसगं ॥ ९/२० धणुं परक्कम किच्चा, जीवं च इरिअं सया । धिइं च केअणं किच्चा, सच्चेणं पलिमंथए ॥ ९/२१ तव नारायजुत्तेणं भित्तूणं कम्मकंचुअं । मुणी विगढसंगामो, भावाओ परिमुच्चई ॥ ९/२२ हे ब्राह्मण, मैंने एक अभिनव नगर बसाया है । शत्रु पर विजय पाने के लिए शस्त्र वगैरह भी बना लिये हैं । सुनो -
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शान्त सुधारस : भाग १
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