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हैं । अज्ञान के कारण अपराधी को दंड नहीं मिले और निरपराधी दंडित हो, वैसा राजा नगर का, प्रजा का क्षेम करनेवाला कैसे कहा जायेगा ? इन्द्र अब राजर्षि की अद्वेष-भावना की परीक्षा की दृष्टि से कहता है -
राजन्, आपकी बात ठीक है, परंतु जो राजाएँ आपकी आज्ञा नहीं मानते उनको आज्ञाधीन करके आप जाना ! राजाओं को आज्ञाधीन बनाने की आपमें शक्ति
राजर्षि ने कहा - जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जा ए जिणे । एगं जिणिज्ज अप्पाणं, एस मे परमो जओ ॥ ९/३४ हे ब्राह्मण, दुर्जय संग्राम में जो सुभट दस लाख सैनिकों पर विजय पाता है, वह सुभट यदि विषय-कषाय में प्रवृत्त ऐसी अति दुर्जेय एक आत्मा को जीत लेता है, तो वह परम विजेता कहा जाता है !'
अप्पाणमेव जुज्झाहि किं ते जुझेण बज्झओ ।
अप्पणामेवमप्पाणं जइत्ता सुहमेहए ॥ ९/३५ हे ब्राह्मण, आत्मा को आत्मा के साथ युद्ध करना है ! अनाचारों में प्रवृत्त आत्मा के साथ युद्ध करना है । बाहर के दुश्मनों से लड़ने से क्या लाभ ? आत्मा से आत्मा पर विजय पा लेनेवाला मुनि परम सुख पाता है ।
पंचिन्दियाणी कोहं माणं माणि तहेव लोभं च ।
दुज्जयं चेव अप्पाणं सव्वमप्पे जिए जिअं ॥ ९/३६ हे ब्राह्मण, पाँच इन्द्रियाँ - क्रोध, मान, माया, लोभ और दुर्जय मन, ये सब आत्मविजय प्राप्त होने पर सहजता से जीता जा सकता है । इसलिए बाहर के शत्रुओं की उपेक्षा कर मैं आत्मजय प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हूँ। आत्मजय प्राप्त होने पर सब कुछ जीता जाता है ।'
अभी तो मैं आपको इन्द्र और नमि राजर्षि के प्रश्न-उत्तर ही सना रहा हूँ । नमि राजर्षि ब्राह्मण-रूपधारी इन्द्र को जो उत्तर दे रहे हैं, उसकी एक-एक बात पर एक-एक प्रवचन दिया जा सकता है, परंतु इतना लंबा प्रवचन नहीं देना है । आप लोग बुद्धिमान हो न ? संक्षेप में सारी बातें समझ सकते हो । बहुत सरल भाषा में सारी बातें बतायी जा रही हैं।
महत्त्वपूर्ण बातें दो हैं – समत्व की और एकत्व की । नमि राजर्षि इन्द्र को कितने समभाव से उत्तर दे रहे हैं ! उनके भीतर आत्मा का विशुद्ध स्वरूप प्रगट
शान्त सुधारस : भाग १
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